पाने पर ही राणा भीमसिंह को छोड़ा जा सकता है। बादशाह का यह सन्देश वायु के समान सम्पूर्ण चित्तौड़ नगरी में फैल गया। रानी पद्मिनी को भी यह संदेश सुनने को मिला । उसने बड़े धैर्य और साहस से काम लिया। चित्तौड़ में उसके साथ उसका चाचा गोरा और बादल नाम का एक बन्धु रहता था । दोनों ही राजपूत शूरवीर और लड़ाकू थे। रानी पद्मिनी ने दोनों को बुलाकर परामर्श किया और जो निर्णय हुआ, उस पर चित्तौड़ के प्रमुख सामन्तों के साथ बातचीत हुई। उसके आधार पर बादशाह के पास संदेश भेजा गया कि जिस समय तातार सेना घेरा तोड़कर चित्तौड़ से जाने को तैयार होगी, पद्मिनी वादशाह के पास पहुँच जायेगी। बादशाह अलाउद्दीन ने इस बात को स्वीकार कर लिया। उसके स्वीकार कर लेने पर चित्तौड़ की तरफ से उससे यह भी कहा गया कि पद्मिनी के साथ जो राजपूत सहेलियाँ रहा करती हैं, वे सभी पद्मिनी को यहाँ तक भेजने आएंगी। वे सभी पालकियों पर परदों के भीतर होंगी। उन सहेलियों में थोड़ी-सी रानी की सखियाँ साथ-साथ दिल्ली भी जायेंगी और बाकी चित्तौड़ वापस लौट जाएंगी। बादशाह ने इन सब बातों को स्वीकार कर लिया। इसके लिये दिन और समय निश्चित हो गया और निर्णय के आधार पर सात सौ बन्द पालकियाँ चित्तौड़ से निकलकर वादशाह के शिविर की तरफ रवाना हुई। प्रत्येक पालकी में छह-छह कहार थे और वे अपने वस्त्रों में लड़ने के लिए हथियार छिपाये थे। उन पालकियों में चित्तौड़ के शूरवीर सशस्त्र राजपूत बैठे थे। चित्तौड़ से निकल कर ये पालकियाँ बादशाह के शिविर के सामने पहुंच गई। बादशाह ने शिविर में आने के लिये एक बड़ा शामियाना लगा दिया था और उस शामियाने के चारों तरफ एक दरवाजा बनाकर कनातें लगा दी गई थीं। एक-एक करके सभी पालकियाँ उस शामियाने के भीतर पहुँच गईं। तातार सेना चित्तौड़ से दिल्ली जाने के लिये तैयार हो चुकी थी और वादशाह को पद्मिनी को दिल्ली ले जाने में कोई संदेह नहीं रह गया था। उसने राणा भीमसिंह को पद्मिनी से अंतिम भेंट करने के लिए आधा घन्टे का समय दिया था। भीमसिंह शामियाने के भीतर पहुँचा। उसी समय एक पालकी में बैठे हुए राजपूत ने उसकी तरफ देखा और कुछ संकेतों के साथ राणा को अपनी पालकी में बिठा लिया। इस कार्य का सम्पादन बड़ी सावधानी और तत्परता के साथ हुआ। उसके बाद ही वह पालकी शामियाने से निकुलकर चित्तौड़ की तरफ रवाना हुई। उसके पीछे चित्तौड़ की कुछ अन्य पालकियाँ भी वहाँ से लौटी। बाकी पालकियाँ शामियाने के भीतर मौजूद रहीं। राणा को जो आधे घन्टे का समय दिया गया था, उसके बीत जाने पर और राणा के शामियाने से न लौटने पर बादशाह को बहुत क्रोध आया। आवेश में आकर वह अपने स्थान से रवाना हुआ और सहज ही शामियाने के भीतर पहुँच गया। उसके साथ बहुत से सैनिक भी शामियाने के भीतर गये। बादशाह को देखते ही कहारों ने, जो पालकियों के साथ थे, आपस में कुछ संकेत किये और उसके बाद ही पालकियों के भीतर से सशस्त्र राजपूतों ने निकलकर बादशाह पर आक्रमण किया। दोनों ओर से मार-काट आरम्भ हो गई। वादशाह के सैनिकों ने अलाउद्दीन की रक्षा बड़ी तेजी के साथ की। उसकी सेना को राजपूतों का कपट मालूम हो गया था। उसी समय तातार सेना का एक सैनिक दल भीमसिंह को पकड़ने के लिये चित्तौड़ की तरफ रवाना हुआ। शिविर से लौटी हुई पालकियाँ अभी तक चित्तौड़ से दूर थीं। बादशाह के सैनिकों के आ जाने पर पालकियों में बैठे हुए राजपूतों ने कूद कर उनका सामना किया। कुछ देर तक भयानक मार-काट हुई और उन राजपूतों ने भीमसिंह की सभी प्रकार से रक्षा की। इसी अवसर पर चित्तौड़ से आया हुआ एक तैयार घोड़ा मिला और उस पर बैठकर भीमसिंह 133
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