सुरक्षित अवस्था में चित्तौड़ पहुँच गया । बादशाह के सैनिकों ने उसका पीछा करते हुए दुर्ग के समीप सिंह द्वार पर आक्रमण किया। दुर्ग के करीब चित्तौड़ के राजपूतों ने बादशाह के सैनिकों के साथ बड़ी वीरता से युद्ध किया। वहाँ पर गोरा और बादल ने अपनी अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया। बादल की अवस्था केवल बारह वर्ष की थी। उसकी तलवार की मार से बादशाह के सैनिकों के छक्के छूट गये। बालक बादल ने बहुत से यवन सैनिकों का संहार किया। युद्ध करते हुए सिंह द्वार पर गोरा मारा गया। बादशाह के सैनिकों की संख्या अधिक थी। बहुत से राजपूत मारे गये। युद्ध बन्द हुआ तो कुछ थोड़े से बचे हुए राजपूतों के साथ बादल चित्तौड़ लौटकर आया। शिविर और सिंह द्वार पर युद्ध का जो दृश्य उपस्थित हुआ, उसे देख कर बादशाह अलाउद्दीन का साहस टूट गया। इस दृश्य के पहले उसने कुछ और ही सोच रखा था और हुआ कुछ और । पद्मिनी को पाने के स्थान पर उसने जो पाया, उससे वह युद्ध को रोक कर अपनी सेना के साथ दिल्ली की तरफ रवाना हो गया। सिंह द्वार के युद्ध में रुधिर से नहाये हुए और सैकड़ों जख्मों से क्षत विक्षत बालक बादल चित्तौड़ पहुँचा । उसके साथ गोरा नहीं था। यह देखते ही गोरा की पत्नी युद्ध के परिणाम को समझ गई। उसने अपने गम्भीर नेत्रों से बादल की ओर देखा। उसकी सांसों की गति तीव्र हो उठी थी। वह बादल के मुँह से तुरन्त सुनना चाहती थी कि बादशाह के सैनिकों के साथ उसके पति गोरा किस प्रकार बहादुरी से युद्ध किया और शत्रुओं का संहार किया। वह बादल के कुछ कहने की प्रतीक्षा न कर सकी और उतावलेपन के साथ उससे पूछ बैठी- “बादल युद्ध का समाचार सुनाओ। प्राणनाथ ने आज शत्रुओं के साथ किस प्रकार युद्ध किया?” बादल में साहस था, उसमें बहादुरी थी। अपनी चाची को उत्तर देते हुए उसने कहा- “चाचा की तलवार से आज शत्रुओं का खूब संहार हुआ। सिंह द्वार पर डटकर संग्राम हुआ। चाचा की मार से शत्रुओं का साहस टूट गया। बादशाह के खूब सैनिक मारे गये। सीसोदिया वंश की कीर्ति को अमर बनाने के लिए शत्रुओं का संहार करते हुए चाचा ने अपने प्राणों की आहुति दी।" बादल के मुँह से इन शब्दों को सुनकर गोरा की स्त्री को संतोष मिला । क्षण भर चुप रह कर और बादल के आगे कुछ न कहने पर उसने तेजी के साथ कहा-"अब मेरे लिए देर करने का समय नहीं है। प्राणनाथ को अधिक समय तक मेरी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी।" यह देख कर वीरबाला गोरा की पत्नी ने जलती हुई चिता में कूद कर अपने प्राणों का अन्त कर दिया। वादशाह अलाउद्दीन चित्तौड़ से दिल्ली चला गया। उसके दिल में जो आग पैदा हुई थी, वह किसी प्रकार वुझ न सकी। दिल्ली लौटने के कुछ दिनों के बाद उसने फिर चित्तौड़ पर आक्रमण करने का निर्णय किया और अपनी सफलता के लिए उसने इस बार अधिक शक्तिशाली सेना का गठन किया। अपनी पूरी शक्ति को संचय करके वह फिर दिल्ली से रवाना हुआ और सम्वत् 1346 सन् 1290 ईसवी में उसने चित्तौड़ पर अपना दूसरा आक्रमण किया। इस आक्रमण का समय फरिश्ता ग्रंथ में तेरह वर्ष बाद का लिखा गया है। दक्षिणी ओर के पहाड़ी हिस्से पर वादशाही सेना मुकाम किया और उसके नीचे उसने । दूसरी वार तातार सेना के चित्तौड़ में पहुँचते ही एक भयानक आतंक वहाँ पर फैल गया। पहले आक्रमण में जिस प्रकार चित्तौड़ के राजपूतों का संहार हुआ था, उनकी पूर्ति न हो सकी थी । वहाँ के शूरवीर राजपूत पहले ही चित्तौड़ की रक्षा में बलिदान हो चुके । इस समय चित्तौड़ की अवस्था अच्छी न थी। लेकिन बादशाह की फौज के आते ही चित्तौड़ के सामन्त और सरदार युद्ध की तैयारियाँ करने लगे और अपने-अपने राज्यों से वे खाई खुदवा 134
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