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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१३५

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सभी चित्तौड़ में पहुँच गये। बड़ी तेजी के साथ युद्ध की तैयारियाँ हुई और राणा के बड़े पुत्र अरिसिंह ने चित्तौड़ की सेना लेकर बादशाह की फौज का सामना किया। तीन दिनों तक यवनों और राजपूतों का भयानक संग्राम हुआ। चौथे दिन अरिसिंह मारा गया। उसके बाद अरिसिंह का छोटा भाई अजयसिंह युद्ध के लिए तैयार हुआ । परन्तु राणा भीमसिंह का प्रेम उसके साथ अधिक था, इसलिये अजयसिंह को युद्ध में जाने से रोका गया। इस अवस्था में अजयसिंह के जो छोटे भाई थे, एक-एक करके वे युद्ध में गये और सव मिलाकर राणा भीमसिंह के ग्यारह लड़के युद्ध में मारे गये। केवल अजयसिंह वाकी रहा । राणा का उसको युद्ध में भेजने का किसी प्रकार इरादा न था इसलिए उसे रोक कर भीमसिंह ने निश्चय किया कि अव मैं स्वयं युद्ध में लड़ने के लिये जाऊंगा। चित्तौड़ में राणा भीमसिंह एक ओर युद्ध में जाने की तैयारी कर रहे थे तो दूसरी और महलों में जौहर व्रत पालन की व्यवस्था हो रही थी। रानियों और राजपूत बालाओं ने इस बात को समझ लिया था कि चित्तौड़ पर भयंकर संकट आ गया है और चित्तौड़ की स्वतन्त्रता के नष्ट होने के समय राजपूत रमणियों को अपने सतीत्व एवम् स्वातंत्र्य को सुरक्षित रखने के लिए जौहर व्रत का पालन करना है। चित्तौड़ की पुरानी प्रणाली के अनुसार शत्रु के आक्रमण करने पर जब राज्य की रक्षा का कोई उपाय न रह जाता था तो सहस्त्रों की संख्या में राजपूत वालायें जौहर व्रत का पालन करती हुई एक साथ आग की होली में बैठ कर अपने प्राणों का उत्सर्ग करती थी। उसी जौहर व्रत की तैयारी इस समय आरम्भ हुई। राजप्रासाद के बीच में पृथ्वी के नीचे भीषण अंधकार में एक लम्बी सुरंग थी। दिन में भी उस सुरंग में भयानक अंधकार रहता था। इस सुरंग में बहुत सी. लकड़ियाँ पहुँचा कर चिता जलाई गई। उसी समय चित्तौड़ की रानियाँ, राजपूत बालायें और सुन्दर युवतियाँ अगणित संख्या में प्राणोत्सर्ग करने के लिये तैयार हुईं। सुरंग के भीतर आग की लपटें तेज होने पर वे सभी वालायें अपने बीच में पद्मिनी को लेकर सत्य, सतीत्व और स्वाधीनता के महत्त्व के गीत गाती हुई सुरंग की तरफ चली। सुंरग में प्रवेश करने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थी, उन सीढ़ियों से होकर वे सुरंग के भीतर प्रवेश करने के लिये नीचे उतरने लगीं। सीढ़ियों के भीतर जाने पर भयानक आवाज के साथ लोहे का बना हुआ सुरंग का मजबूत दरवाजा बन्द हुआ और कुछ क्षणों के भीतर सहस्रों राजपूत बालाओं के शरीर सुरंग की प्रज्ज्वलित आग में जलकर ढेर हो गये। चित्तौड़ की स्वाधीनता की कोई आशा नहीं रही थी। सुरंग का लौह द्वार बन्द होते ही राणा भीमसिंह की सेना युद्ध के लिये चित्तौड़ से निकली । बचे हुए सभी सामन्त और सरदार अपनी सेनाओं के साथ युद्ध में पहुँचे। बादशाह अलाउद्दीन की विशाल सेना के साथ चित्तौड़ का यह अंतिम युद्ध था। युद्ध-स्थल पर चित्तौड़ की सेना के पहुंचते ही दोनों ओर से संग्राम आरम्भ हो गया। वादशाह के साथ दिल्ली से जो विशाल सेना आई थी, वह एक साथ युद्ध में कूद पड़ी। चित्तौड़ के राजपूत इस संग्राम को अपने जीवन का अन्तिम युद्ध समझते थे। इसलिए उन्होंने शत्रुओं के साथ युद्ध करने में कुछ कसर न रखी। भयानक रूप से दोनों सेनाओं में मार-काट हुई। राजपूत सेना के मुकाबले में बादशाह की सेना बहुत बड़ी थी। इसलिए भीषण युद्ध के बाद चित्तौड़ की सेना की पराजय हुई, अगणित संख्या में उसके सैनिक और सरदार मारे गये और चित्तौड़ की शक्ति का पूर्ण रूप से क्षय हुआ। युद्ध के कारण युद्ध का स्थल श्मशान बन गया। चारों ओर दूर-दूर तक मारे गये सैनिकों के शरीरों से जमीन अटी पड़ी थी और रक्त वह रहा था। 135