अध्याय-18 राणा संग्राम सिंह, रतन सिंह और भारत पर बाबर का आक्रमण सम्वत् 1565 सन् 1509 ईसवी में साँगा संग्रामसिंह के नाम से चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा । इसके पहले मेवाड़ राज्य की कमजोरियाँ पैदा हो गयी थीं और राणा के अंतिम दिनों में जो आपसी झगड़े पैदा हो गये थे, वे सब के सब राणा संग्रामसिंह के सिंहासन पर वैठते ही दूर हो गये। संग्रामसिंह न केवल शूरवीर और दूरदर्शी था, बल्कि वह एक सुयोग्य शासक भी था । राणा कुम्भा के वाद मेवाड़ राज्य ने जो कुछ खोया था, राणा संग्रामसिंह के अधिकार पाते ही राज्य ने उसे फिर प्राप्त किया। दिल्ली का जो राज सिंहासन किसी समय पाण्डवों के द्वारा विभूपित हुआ था और उनके वाद जिस पर तोमर तथा चौहान राजपूतों ने वैठकर भारतवर्ष में चक्रवर्ती राजा की ख्याति पायी थी, समय के परिवर्तन से दिल्ली के उसी सिंहासन पर गौरी, खिलजी और लोदी वंश के बादशाहों ने वैठकर इस देश में शासन किया। समय के प्रभाव से आज उसी दिल्ली का राज्य सैकड़ों टुकड़ों में विभाजित हो गया है और उन छोटो-छोटे टुकड़ों में सैकड़ों राजा और नवाव आज शासन करते हैं। इन दिनों में दिल्ली और वनारस के मध्य दिल्ली, वीना, कालपी और जौनपुर के नाम के चार स्वतंत्र राज्य अपना शासन चला रहे थे। परन्तु संग्रामसिंह के लिए उन राज्यों का कोई महत्व न था। एक समय था, जब मेवाड़ राज्य में आपसी झगड़े पैदा हो गये थे, उस समय गुजरात और मालवा के दोनों शासक मेवाड़ राज्य के विरोधियों से मिल गये थे। परन्तु वे मेवाड़ राज्य को कोई हानि नहीं पहुंचा सके। संग्रामसिंह के सिंहासन पर बैठते ही मेवाड़ राज्य ने अपनी उन्नति आरम्भ की और कुछ समय के बाद वह भारतवर्ष का चक्रवर्ती राजा माना गया। मारवाड़ और आमेर के राजाओं ने मेवाड़ की ख्याति बढ़ाई | ग्वालियर, अजमेर, सीकरी, राईसीन, कालपी, चन्देरी, बूंदी, गागरौन, रामपुर और आव आदि कितने ही राज्यों के राजा और नरेश मेवाड़ राज्य के सामन्त रहे थे और आवश्यकता पड़ने पर सभी अधीन राजा और सामन्त अपनी-अपनी सेनाएं लेकर मेवाड़ राज्य की तरफ से शत्रुओं के साथ युद्ध करते थे। राज्य का अधिकार पाने के बाद राणा संग्रामसिंह ने अपनी सेना का संगठन वड़ी बुद्धिमानी के साथ किया था और अपने सैनिकों को युद्ध की शिक्षा देकर उनको शक्तिशाली बनाया था। यही कारण था कि उसने दिल्ली और मालवा के वादशाहों के साथ युद्ध में विजय प्राप्त करके शत्रुओं की सेना को पराजित किया। दिल्ली के वादशाह 156
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