इब्राहीम लोदी ने दो बार संग्रामसिंह के साथ युद्ध किया और दोनों बार वह पराजित हुआ। राणा संग्रामसिंह के शासन काल में मेवाड़ राज्य की सीमा बहुत दूर तक फैल गयी थी । उत्तर में बयाना प्रान्त में बहने वाली पीलीनंदी, पूर्व में सिंध नदी, दक्षिण में मालवा और पश्चिम में मेवाड़ की दुर्गम शैलमाला उसकी सीमा बन गयी थी। मेवाड़ राज्य की यह उन्नति राणा संग्राम सिंह की योग्यता, गम्भीरता और दूरदर्शिता का परिचय देती है। उसके सिंहासन पर आने के पहले जिन शत्रुओं ने चित्तौड़ पर अधिकार करने के सपने देखे थे, राणा संग्रामसिंह के आते ही उनका और उनके सहायकों का फिर कभी नाम सुनने को नहीं मिला। इन सब बातों का कारण यह था कि राणा संग्रामसिंह प्रतापी और बहादुर राजा था । मध्य एशिया की रहने वाली जातियों ने बारम्बार आक्रमण करके भारतवर्ष में लूटमार की थी, इस देश का प्राचीन इतिहास स्वयं इस बात का प्रमाण है । इन हमलों और लगातार लूट का कारण यह था कि इस विशाल देश का शासन प्राचीन काल से अगणित छोटे-छोटे राजाओं और नरेशों के अधिकार में चला आ रहा था। उन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं था, जैसा कि इस देश में आज भी है। ये छोटे-छोटे सभी राजा और नरेश एक दूसरे से ईर्ष्या करते थे। उनमें परस्पर मित्रता और सहानुभूति का सम्बन्ध न था। यूनान के इतिहासकारों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि जिस समय सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया था, केवल पंजाब में छोटे-छोटे बहुत से राजा थे। सिकन्दर के बाद ईरान के लोगों ने भारत पर आक्रमण किया। सम्राट डैरियस ने अपने अधिकृत राज्यों में भारत को सब से अधिक सम्पन्न और समृद्धिशाली पाया था। तक्षक, पारद, हूण, यूनानी, गौरी और चगताई आदि अनेक जातियों ने समय-समय पर इस देश पर आक्रमण किये थे और यहाँ की अपरिमित सम्पत्ति लूटकर अपने देश में ले गये थे। प्राचीन काल से लेकर बहुत समय तक लगातार इस देश के लूटे जाने के दो ही कारण थे। एक तो यह कि यह देश अत्यधिक सम्पत्तिशाली था और दूसरा कारण यह था कि इस देश में अगणित राजा और नरेश थे और उनमें परस्पर फूट चल रही थी। उस फूट और ईर्ष्या के कारण ही बाहरी आक्रमणकारी और लुटेरी जातियों को इस देश में आने और आक्रमण करने का मौका मिला । गौरी से लेकर बाबर तक पाँच आक्रमण इस देश में ऐसे हुए जिनमें प्रत्येक ने यहाँ आकर और इस देश के राज्यों को पराजित करके अपने शासन कायम किये । संग्रामसिंह के समय में जिसने इस देश में आकर आक्रमण किया था, वह इन पाँचों में अंतिम था। उसने यहाँ पर अपना जो राज्य कायम किया, उसमें उसके वंशजों ने अंग्रेजी शासन के आरम्भ तक बादशाहत की। यहाँ के राजपूत आज भी वैसे ही हैं जैसे कई हजार वर्ष पहले उनके पूर्वज थे। उनके जीवन की नैतिकता और सामाजिकता आज भी वही दीन-दुर्बल-पुरानी दिखायी देती है। जो बहुत प्राचीन काल में इस वंश के लोगों मे पायी जाती थी। आपस की फूट और ईर्ष्या हजारों वर्ष पहले इनके पूर्वजों के जीवन में जो काम कर रही थी, वह आज भी उनमें मौजूद है। संसार एक तरफ है और यहाँ के लोग दूसरी तरफ हैं । विश्व में किसी के साथ इस देश का सम्बन्ध और सम्पर्क नहीं है। सिकन्दर से लेकर वाबर तक कितने ही भयानक तूफान इस देश में आये। उनसे देश बार-बार उजड़ा और सभी बातों में इसका सर्वनाश हुआ। परन्तु यहाँ के लोगों ने किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं समझी। जीवन के इस सिद्धान्त की यहाँ पर आलोचना करने की जरूरत नहीं है। इस प्रकार की बातें सही हैं अथवा गलत, इसका निर्णय तत्ववेत्ताओं के दृष्टिकोण से सम्बन्ध रखता है। लेकिन यहाँ पर हम इतना ही कह सकते हैं कि जीवन के जिस पहलु का अभाव ऐसे अवसरों पर 157
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