बार-बार खटकता है, उसके भीतर शक्तियों का सामन्जस्य छिपा रहता है और उसके ऊपर ही पूर्ण रूप से सार्वजनिक जीवन का विकास और विनाश निर्भर होता है। बावर इन दिनों में मध्य एशिया के फरगना का राजा था। फरगना का राज्य जक्सतरत्तीस नदी के दोनों किनारों पर फैला हुआ था। वहाँ पर जिन लोगों की आवादी थी, उस समय वे लोग बड़े शक्तिशाली थे और उन लोगों की तलवारों से किसी समय यूरोप तथा एशिया के अनेक राज्य बरबाद हो गये थे। उन दिनों में इन लोगों ने अपने रहने के पुराने स्थानों को छोड़ दिया था और संसार में सब जगह इस जाति के लोग फैल गये थे। जिन लोगों के 'एटिला और एलारिक जैसे पराक्रमी वीरों ने संसार के बहुत से देशों को भयभीत कर दिया था उस जाति के लोगों में परस्पर संगठन था और उनमें वहादुरी भी थी! उनके इन गुणों से को नकारा नहीं जा सकता। यही लोग दो हजार की संख्या में भारतवर्ष में आये थे और दिल्ली पर इन्होंने अधिकार कर लिया था। फरगना के बादशाह बाबर की और संग्रामसिंह के जीवन की अनेक बातें मिलती-जुलती हैं। संग्रामसिंह के बचपन का उल्लेख पिछले पृष्ठों में किया जा चुका है। उन बातों को यहाँ पर फिर से लिखने की आवश्यकता नहीं है। केवल इतना ही लिखना काफी है कि उसने लड़कपन से लेकर मेवाड़ के सिंहासन पर बैठने के समय तक जीवन की भयानक कठिनाइयों का सामना किया था। वह जब छोटा था, भाइयों के साथ उसका झगड़ा हुआ था और उस झगड़े में अपने प्राण लेकर वह राज्य से भाग गया था। कहाँ गया और किस प्रकार उसने अपना जीवन निर्वाह किया, इसको लिखकर यहाँ पर विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। राणा रायमल के मर जाने पर जब वह चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा, उस समय से उसकी जिन्दगी के अच्छे दिन आरम्भ होते हैं। बादशाह बाबर की जिन्दगी की शुरुआत भी बड़ी भयानक रही थी। सन् 1494 ईसवी में वह फरगना के सिंहासन पर बैठा। उस समय उसकी अवस्था बारह वर्ष की थी। इसके चार बर्ष बाद, सोलह वर्ष की अवस्था में उसने अपने आस-पास के कई राजाओं के साथ युद्ध किया और दो वर्षों के बाद उसने समरकन्द पर अधिकार कर लिया। परन्तु उसके बाद वह फिर उसके अधिकार से निकल गया। इन दिनों में उसका जीवन बड़ी विचित्र गति से चल रहा था। पड़ोसी राज्यों के साथ उसके रोज के संघर्ष थे। उनमें कभी उसकी हार होती थी और कभी वह विजयी होता था। कभी पराजित होने पर अपना राज्य छोड़कर उसे दूर भाग जाना पड़ता था और उसके बाद अपनी शक्तियों का संगठन करके वह फिर शत्रु विश्वास करता था। वह कभी घबराता न था। इन दिनों में उसके शत्रुओं की संख्या बढ़ गयी थी, इसलिए अपना राज्य छोड़कर वह हिन्दू-कुश की तरफ रवाना हुआ और सन् 1519 ईसवी में सिंध नदी के पास पहुँच गया। इस समय वह बहुत निर्बल अवस्था में था। काबुल और पंजाब के बीच में रहकर उसने किसी प्रकार सात वर्ष व्यतीत किये। इन दिनों में अपनी सफलता के नये-नये रास्ते वह खोजता रहा ।इसके बाद बाबर ने दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी पर चढ़ाई की। उसके भाग्य ने उसका साथ दिया। इब्राहीम मारा गया। उसकी सेना युद्ध से भागकर तितर-बितर हो गयी। दिल्ली और आगरा के लोगों ने बाबर का स्वागत किया। अपनी सफलता को देखकर बाबर ने भगवान को धन्यवाद दिया। फरगना को आजकल कोकन कहा जाता है। यह जक्सतरत्तीस नदी के किनारे पर बसा हुआ है। - 1. 158
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१५८
दिखावट