पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१६४

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चित्तौड़ के सामने इस समय भयानक संकट था। बादशाह बहादुर की फौज को रोक सकने का अब कोई उपाय मेवाड़ के राजपूतों के पास न था। चित्तौड़ का पतन होने में देर न थी। इस दशा में चित्तौड़ के दरबार में जो लोग बाकी रह गये थे, उनके परामर्श से चित्तौड़ में बड़ी तेजी के साथ जौहरव्रत की व्यवस्था की गयी। रानी कर्णवती तेरह हजार राजपूत बालाओं के साथ जोहरव्रत के लिए सुरंग में पहुँच गयी। उसके बाद सुरंग में तुरंत आग लगाई गयी और चित्तौड़ की तेरह हज़ार राजपूत ललनायें. उस आग में जलकर राख हो गयीं। इसी समय युद्ध में राजपूतों की पराजय हुई। बत्तीस हजार की संख्या में शूरवीर राजपूतों के मारे जाने पर चित्तौड़ का पतन हुआ और बादशाह बहादुर ने अपनी विजयी सेना के साथ चित्तौड़ में प्रवेश किया। पन्द्रह दिनों तक वहाँ रहकर उसने और उसकी फौज के सिपाहियों ने खुशियाँ मनायीं। जिस समय बादशाह बहादुर की फौज से युद्ध करते हुए चित्तौड़ की रानी जवाहर बाई मारी गयी थी, रानी कर्णवती को चित्तौड़ के बचने की कोई आशा न रही थी। वह किसी प्रकार अपने छोटे बालक की रक्षा करना चाहती थी। इसलिये बहुत सोच समझकर उसने दिल्ली के बादशाह बाबर के लड़के हुमायूँ से सहायता लेने का विचार किया। इन्हीं दिनों में रक्षा-बन्धन का त्यौहार था। राजस्थान में यह त्यौहार बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। हिन्दू स्त्रियाँ अपने भाइयों के हाथों में राखियाँ बाँधकर इस त्यौहार की खुशियाँ मनाती हैं। रानी कर्णवती ने दिल्ली में हुमायूँ के पास रक्षा-बन्धन के त्यौहार पर अपनी राखी भेजी। हुमायूँ ने उस राखी के बदले में बादशाह बहादुर से चित्तौड़ की रक्षा करके रानी कर्णवती की सहायता करने का निश्चय किया और इसी आधार पर अपनी एक फौज लेकर वह दिल्ली से चित्तौड़ की तरफ रवाना हुआ और जैसे ही वह चित्तौड़ के करीब पहुँचा, बादशाह बहादुर भयभीत होकर चित्तौड़ छोड़कर चला गया। राणा विक्रमाजीत हुमायूँ की सहायता से फिर चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। उसने इन दिनों में अनेक प्रकार की विपदाओं का सामना किया परन्तु उसके जीवन में कोई परिवर्तन न हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने फिर उसी प्रकार के अपने काम और व्यवहार आरम्भ कर दिये जिनसे पिछले दिनों में मेवाड़ राज्य के मन्त्री और सरदार रूठ कर उसके विरोधी बन गये थे। अब राणा विक्रमाजीत के सुधार की कोई आशा वहाँ के सरदारों के मन में न रह गयी थी। इसी बीच में राणा विक्रमाजीत ने उस वृद्ध कर्मसिंह के साथ अपमानजनक व्यवहार चित्तौड़ के दरबार में किया, जिसने संग्रामसिंह की उस समय सहायता की थी, जब वह अपने भाई पृथ्वीराज से लड़कर और भयभीत होकर अपने पिता के राज्य से भाग गया था। बूढ़े कर्मसिंह के साथ राणा विक्रमाजीत का अनुचित व्यवहार देखकर दरबार के सरदारों ने बहुत बुरा माना और वे राणा विक्रमाजीत से इसका बदला लेने के लिए आपस में परामर्श करने लगे। राजपूत देवता की भांति अपने राजा का सम्मान करना अपना धर्म समझते हैं। इस स्वाभाविक गुण के कारण चित्तौड़ के सरदार लोग राणा विक्रमाजीत के अनुचित कार्यों और 1. हुमायूँ के बारे में उपरोक्त विवरण के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हैं। अत: यह ऐतिहासिक घटना नहीं है तथा सुनी-सुनाई बात लगती है। 164