पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२४१

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"तारीख 28 रवि-उल-अव्वल । आज मेरी सतनत का ग्यारहवाँ साल है। मेरे हुक्म से राणा साहब और उनके लड़के कर्ण की दो मूर्तियाँ बनायी गयीं, ये मूर्तियाँ संगमरमर की बनी थी। जिस दिन वह दोनों मूर्तियाँ तैयार करके मेरे पास लाई गयीं, उसी दिन की तारीख उन पर खुदवा कर उन्हें आगरा के बाग में फरोकश करने का हुक्म दिया।" "मेरी सलतनत के ग्यारहवें वर्ष में एतमादखाँ ने मुझको लिख भेजा कि सुलतान खुर्रम राणा जी के मुल्क में गये। वहाँ पर राणा और उनके लड़के ने सात हाथी, सत्ताईस घोड़े, जवाहरात और तिलाई गहने वगैरह नजराने में दिये थे। नजराने में सुलतान खुर्रम ने सिर्फ तीन घोड़े लेकर बाकी सब सामान फेर दिया। उस दिन यह बात भी करार पाई कि राजकुमार कर्ण मय पन्द्रह सौ राजपूतों के मैदान जंग में शाहजादा खुर्रम के पास रहें । “अपनी सलतनत के तेरहवें वर्ष में जिस वख्त मेरा दरबार सिंदला में लगा हुआ था, वहीं पर राजकुमार कर्ण ने आकर मुझसे मुलाकात की। मुझको मुल्क दक्खन में जो फतह और कामयाबी हासिल हुई थी, उसके लिए खुशी जाहिर कर कर्णसिंह ने सौ मोहर, एक हजार रुपये तरह-तरह के नजराने और इक्कीस हजार रुपये के सोने चांदी के जेवरात व बहुत से हाथी, घोड़े मुझको दिये । हाथी, घोड़ों को वापिस करके बाकी सब नजराना मैंने ले लिया, दूसरे दिन मैंने उसको खिलत देकर फतेहपुर से लौट जाने का हुक्म दिया। वक्त रुख्सत के उसको एक हाथी, एक घोड़ा, तलवार व कटार और उसके बाप के लिए एक उमदा घोड़ा यह सामान दिया। "चौदहवाँ साल । तारीख 17 रवि-उल-अव्वल हिजरी सन् 1029 को मैंने अमरसिंह के बहिश्त नशीन होने की खबर पायी। राणा का बेटा भीमसिंह और पोता जगतसिंह यह खबर लेकर मेरे पास आये थे। उनको मैंने तरह-तरह के खिलत दिये और राजा किशोरीदास की मारफत एक चिट्ठी जिसमें तसल्ली दी गयी थी, कितने ही उमदा घोड़े, तख्तनशीन होने का जरूरी सामान रवाना करके कर्णसिंह को राणा का खिताब दिया। बादजाँ 7वीं सव्वाल को बिहारीदास वर्मन की मारफत एक फरमान जिस पर मेरा पंजा लगा हुआ था, रवाना करके कहला भेजा कि उनका लड़का मुकर्रिर फौज को साथ लेकर मेरे पास हाजिर हो । बादशाह जहाँगीर की यहाँ पर लिखी हुई पंक्तियों की एक पक्षीय आलोचना स्वयं मेवाड़-राज्य के गौरव को कम कर सकती है। इसलिए निष्पक्ष भाव से उन पर प्रकाश डालने की आवश्यकता है। शाहजादा खुर्रम के मुकाबिले में राजपूतों की पराजय के कारण अमरिसंह को दिल्ली के मुगलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। इतना लिख देने से मेवाड़ के राजपूतों का यथार्थ गौरव व्यक्त न हो सकता था और न राणा अमरसिंह के उस साहस और धैर्य का अनुमान किया जा सकता था, जिसके द्वारा उसने राणा प्रताप के मरने के बाद मेवाड़-राज्य के गौरव को कायम रखा था। जहाँगीर के उल्लेख से मेवाड़ का यह गौरव साफ साफ हमारे सामने आ जाता है, जो इन दिनों में मुगल बादशाह के निकट कायम हुआ । इस परतंत्रता के बावजूद भी जहाँगीर ने अमरसिंह को वह सम्मान दिया, जो इसके पहले मुगलों से मेवाड़ को कभी न मिला था। इस सम्मान में जितना ही हम मेवाड़ के राजपूतों का शौर्य, स्वाभिमान, बलिदान और साहस अनुभव करते हैं, उतना ही हमें जहाँगीर के श्रेष्ठ चरित्र, उदार भाव, वड़प्पन और निष्पक्ष भाव को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अमरसिंह के अधीनता स्वीकार करने पर बादशाह को प्रसन्नता हुई परंतु उस प्रसन्नता में उसका अहम्भाव, अभिमान और अमरसिंह के प्रति अपमान का भाव न था। उसने अपनी लेखनी के द्वारा मेवाड़ के गौरव को स्वीकार किया। बहुत समय तक राजपूतों ने जिस प्रकार स्वाभिमान के साथ मुगलों से युद्ध किया था और भयंकर कष्टों के जीवन में भी कभी मस्तक नीचा करने का विचार न किया, अमरसिंह और " 241