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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२६८

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मुगल-राज्य के कमजोर पड़ जाने के बाद मेवाड़-राव्य के इन नियमों में परिवर्तन होने लगा। मराठों और पटानों ने अपनी शक्तियाँ मनवृत बना कर नब मेवाड़-राज्य में प्रवेश करना आरम्भ किया तो मेवाड़ के सरदारों ने अपने राज्य की रक्षा के लिये नये-नये दुर्गों का निर्माण किया। राणा संग्रामसिंह ने मेवाडु के सिंहासन पर बैठकर अठारह वर्ष तक राव्य किया । उसके शासनकाल में राज्य के गौरव को किसी प्रकार का आघात नहीं पहुंचा। शत्रुओं ने मेवाड़-राव्य के दिन नगरों पर अधिकार कर लिया था, संग्रामसिंह ने उनको लेकर अपने सन्य में मिला लिया। विहारीदास पांचौली को अपना मंत्री बनाकर राणा संग्रामसिंह ने अपनी योग्यता और दूरदर्शिता का परिचय दिया। विहारीदास पाँचौली की तरह का योग्य मंत्री कदाचित पहले कभी मेवाड़ राज्य के दरवार में नहीं रहा था। अपनी योग्यता और प्रतिभा के द्वारा बिहारीदास ने उस राज्य में बहुत समय तक रह कर मन्त्री के पद पर कार्य किया। राणा संग्रामसिंह का चरित्र उज्जवल और श्रेष्ठ था, प्रजा के अधिकारों को सुरक्षित रखने में उसने बड़ी ख्याति पाई थी। इसके अलावा वह न्यायप्रिय था और अपने वचनों को पूरा करना वह खूब जानता था। शासन में वह जितना ही चतुर था, व्यवहार में वह उतना ही कुशल माना जाता था । राणा संग्रामसिंह के लोकप्रिय व्यवहार के सम्बन्ध में बहुत सी बातें राजस्थान की पुरानी पुस्तकों में पायी जाती हैं और उनमें से अधिकाँश राजस्थान के लोगों के द्वारा आन तक कही जाती हैं। उन घटनाओं को - जिनके द्वारा राणा संग्रामसिंह की व्यावहारिकता और लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है - विस्तार के कारण यहाँ पर लिखा नहीं जा सकता। इसलिये संग्रामसिंह के उज्ज्वल चरित्र के संबंध में यहाँ पर इतना ही लिखना काफी है कि राज्य की प्रजा उसके प्रति सदा आस्था रखती थी और सरदार तथा सामन्त हमेशा विश्वासपूर्वक मेवाड़-राज्य के लिये प्राण देने को तैयार रहते थे। रान्य की रक्षा करने के लिये राणा संग्रामसिंह को अठारह वार शत्रुओं के साथ युद्ध करना पड़ा था। उसके मरने के पश्चात् मेवाड़ राज्य में मराटों का प्रवेश आरम्भ हुआ और सीसोदिया वंश के उस प्राचीन राज्य में अनेक राजनीतिक परिवर्तन हुये । राणा संग्रामसिंह के चार लड़के थे। जगतसिंह सवंसं वड़ा था। यह नाम पहले भी आ चुका है। इसलिये प्राचीन ग्रंथों में इसका जगतसिंह दूसरा नाम देकर लिखा गया है। संग्रामसिंह की मृत्यु हो नाने पर नगतसिंह संवत् 1790 सन 1734 ईसवी में मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा । इन दिनों मुगल राज्य की अवस्था लगातार निर्बल होती जा रही थी। स्थान-स्थान पर विद्रोह पैदा हो रहे थे और उनको दमन करने की शक्ति मुगल बादशाह में न रह गयी थी। एक प्रकार से देश में भाषण क्रान्तिकारी आंधी चल रही थी। उस समय जगतसिंह के लिए यह बहुत यावश्यक था कि वह भविष्य में होने वाले परिवर्तनों को देख कर किसी शक्ति का निर्माण करे । इसलिये उसने राजस्थान के दो अन्य राजाओं के साथ मिलकर एक संधि की। इस प्रकार की एक सन्धि राजस्थान के तीन राजाओं में भी उदयपुर में हो चुकी थी। उसको मारवाड़ के राना उदयसिंह ने भंग किया था और स्वीकृत बातों के विरुद्ध आचरण किया था। इस बार की संधि में वह अजितसिंह फिर शामिल हुआ और अपराध को स्वीकार करते हुए भविष्य में संधि के अनुसार आचरण करने का उसने वादा किया। दूसरे दोनों राजाओं ने एक बार फिर अजितसिंह का विश्वास किया और तीनों ने मिलकर निश्चित शतों को शपथपूर्वक स्वीकार किया कि हममें से कोई भी मुसलमानों के साथ किसी प्रकार 268