कहा-“आप जिन स्थानों पर राजपूतों ने अधिकार कर लिया था, जावद को छोड़कर बाकी पर फिर मराठों ने अपना अधिकार कर लिया। दीपचन्द ने बड़ी बहादुरी के साथ एक महीने तक जावद की रक्षा की। इन दिनों में चन्दावत लोगों को छोड़कर बाकी सभी सरदार राणा के साथ मिल गये। राजमाता और मेवाड़ के नवीन मंत्री सोमजी ने चूंडावतों का दमन करने की चेष्टा की। इन परिस्थितियों में चूंडावत सालुम्बर सरदार राणा से क्षमा माँगने के लिये उदयपुर आया और वह चापलूसी करने लगा। उसने कहा-“मैं राज्य के मंत्री सोमजी के साथ मिलकर काम करना चाहता हूँ ।” परन्तु उसकी इस बात में सच्चाई न थी । वह किसी प्रकार मन्त्री सोमजी का वध करना चाहता था और इसके लिये वह भीतर ही भीतर षड़यंत्र की रचना कर रहा था। एक दिन कोरावाड का सरदार अर्जुन सिंह और भदेसर का सामन्त सरदारसिंह-दोनों एक साथ मंत्री सोमजी के सामने पहुंचे और बड़े आवेश के साथ हमारी जागीर को जब्त करने का क्या अधिकार था?" इसके साथ ही सरदारसिंह ने अपनी तलवार का भीषण वार मन्त्री पर किया। यह देखकर सोमजी के दोनों भाई उसकी रक्षा के लिये दौड़ पड़े। अर्जुनसिंह ने आगे बढ़कर उनका सामना किया। अन्त में दोनों आक्रमणकारी सालुम्बर सरदार के साथ चितौड़ चले गये। राणा भीम में आक्रमणकारियों को दंड देने का सामर्थ्य न था । मन्त्री सोमजी के मारे जाने पर उसके भाई शिवदास और सतीदास राज्य के मन्त्री बनाये गये। शिवदास और सतीदास ने मन्त्री पद पाने के बाद शक्तावत लोगों की सहायता से कई बार चूंडावत लोगों के साथ युद्ध किया। उन लड़ाइयों में मंत्रियों को अकोला में होने वाले युद्ध में केवल विजय प्राप्त हुई। इस लड़ाई में कोरावाड़ का सरदार अर्जुनसिंह चूंडावत लोगों का सेनापति बना। अकोला के युद्ध के थोड़े ही दिनों बाद खैरीद नामक स्थान पर युद्ध हुआ। उसमें शक्तावत फिर पराजित हुए। मेवाड़ राज्य में आपसी झगड़ों के कारण प्रजा के सामने भयानक कठिनाइयाँ पैदा हो गयी थीं। उन दिनों में जो पक्ष विजयी होता था, वह उन्मत्त होकर प्रजा का सर्वनाश करता था। इन विद्रोहों को दबाने की शक्ति राणा में न थी। इसलिये सम्पूर्ण राज्य में अराजकता बढ़ती जाती थी। विद्रोही सैकड़ों और सहस्त्रों की संख्या में तलवारें लिये हुए राज्य में चारों ओर घूम रहे थे और प्रजा का सभी प्रकार विनाश कर रहे थे। कृषकों से लेकर सभी प्रकार के व्यवसायी भयानक संकट का सामना कर रहे थे। चोरों, लुटेरों और डाकुओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी। जो अपराध पहले कभी मेवाड़ में सुनने को न मिलते थे, इन दिनों में उनकी अधिकता के कारण प्रत्येक समय प्रजा की सम्पत्ति, प्रतिष्ठा और जिन्दगी खतरे में थी। चूण्दावत लोगों के अत्याचारों से राज्य में चतुर्दिक त्राहि-त्राहि मच गयी। राज्य की तरफ से कोई प्रबन्ध न होने के कारण लोग अपने-अपने घर-द्वार छोड़कर भागने लगे। राज्य के जो स्थान सदा मनुष्यों से भरे रहते थे, वे सूनसान दिखायी देने लगे । जो लोग खेती करते थे, वे इस बढ़ती हुई अराजकता के कारण सदा अनिश्चित रहते थे। ठीक यही अवस्था राज्य के दूसरे व्यवसायों की हो गयी थी। गरीबों और मजदूरों की अवस्था अत्यन्त भयानक हो गयी थी। राज्य के इस आन्तरिक विद्रोह के कारण कुछ ही वर्षों में मेवाड़ की आबादी घटकर आधी रह गयी। व्यवसाय नष्ट हो ग था और वेकारों की संख्या बढ़ती जाती थी। खेती का काम नष्ट हो गया था और जुलाहों का बुना हुआ कपड़ा, जो चारों तरफ बिक्री के लिये जाता था, खत्म हो गया था। राज्य की अवस्था शोचनीय हो गयी थी। प्रजा की रक्षा करने के स्थान पर राणा स्वयं अपनी रक्षा कर सकने में असमर्थ हो रहा था। उसकी अवस्था बहुत दयनीय हो गयी थी, उसको अपनी रक्षा की आवश्यकता 291
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