थी। राणा की इस असमर्थता के कारण शासन का डर लोगों के दिलों से मिट गया था। बढ़ती हुई चोरी, बदमाशी और डकैती से लोगों को अपनी रक्षा की जरूरत थी। इसलिए जो राजपूत शक्तिशाली थे, उन्होंने भयभीत प्रजा की रक्षा करने का व्यवसाय आरम्भ किया। वे घोड़ों पर चढ़कर और अपने हाथों में तलवार तथा भाला लेकर निकलते और लुटेरों से प्रजा की रक्षा करते । उस दशा में लोग अपने ही राज्य में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते और अपने साथ की सामग्री की वे रक्षा कर सकते । दुरवस्था सम्पूर्ण राज्य में फैल गयी। शासन ढीला पड़ जाने के कारण रक्षक राजपूतों का व्यवसाय बढ़ने लगा और प्रजा का प्रत्येक व्यक्ति एवम् परिवार सहायता का अनिश्चित मूल्य देकर सहायता प्राप्त करने लगा। राज्य की यह दुरवस्था अत्यन्त भयानक हो उठी और लुटेरे मराठों के गिरोह मेवाड़-राज्य में आकर लूट-मार करने लगे। उस सयम मेवाड़ की जो शोचनीय दशा हो गयी थी, उसका वर्णन करना असंभव है। राज्य की इस दुरवस्था का कारण एकमात्र चूंडावत लोग थे। उनके दमन की कोई व्यवस्था न हो सकने पर राणा और उसके मन्त्रियों ने प्राचीन राजधानी से विद्रोही चूंडावत लोगों को निकाल देने के लिए, सिंधिया से प्रार्थना की। जिस सिंधिया ने रत्नसिंह की सहायता करके मेवाड़ राज्य का सर्वनाश किया था, आज राणा को अपनी असमर्थता में उससे सहायता के लिए प्रार्थना करनी पड़ी। इसके लिए जालिमसिंह ने राणा को परामर्श दिया था। सिंधिया उन दिनों में पुष्कर के तट पर अपनी सेना के साथ था और अपनी सेना को युद्ध की शिक्षा देने के लिए उसने डिबोइन नामक एक फ्रांसीसी सरदार को अपने यहाँ नियुक्त किया। उसकी शिक्षा पाकर सिंधिया की सेना इन दिनों में अधिक शक्तिशाली हो गयी थी और मेड़ता तथा पट्टन में उसके उत्पात फिर से बढ़ गये थे, राठौर राजपूतों ने पूरी शक्ति लगाकर उनका मुकाबला किया, लेकिन उनको सफलता न मिली और वे पराजित हुए । राठौर राजपूतों को जीतने के कारण सिंधिया की शक्तियाँ फिर से भयानक हो उठीं। जालिमसिंह उन दिनों में कोटा का सरदार था । वह किसी प्रकार मेवाड़ के सिंहासन पर अधिकार करना चाहता था। शूरवीर और राजनीतिकज्ञ होने के साथ-साथ वह दूरदर्शी था। निर्बल राणा को असमर्थ बनाकर वह मेवाड़ का राज्याधिकार लेने के लिए अनेक प्रकार के षड़यंत्रों की रचना करने लगा। मारवाड़ और जयपुर के राजाओं का उसे कोई भय न था। उसने मारवाड़ के प्रसिद्ध सामन्तों को मिलाकर अपने पक्ष में कर लिया। अपनी आशा को पूरा करने के लिए जालिमसिंह अवसर की प्रतीक्षा में था। परिस्थितियाँ स्वयं मनुष्य को निर्वल और सबल बनाने का काम करती हैं। अपनी बढ़ती हुई कमजोरियों में राणा ने अपनी सेना का अधिकार जालिमसिंह को सौंप दिया। इस समय और सुयोग का लाभ उठाने के लिए जालिमसिंह ने राजनीतिक चालों से काम लिया । राणा ने सेना का जो कार्य जालिमसिंह को सौंपा था, उसके लिए धन की आवश्यकता थी। इस धन का प्रबंध करने के लिए जालिमसिंह ने समझा कि राज्य की कुछ जागीरों पर चूंडावत लोगों ने जबरदस्ती अधिकार कर लिया है, इसलिए उन जागीरों के बदले में चूंडावत लोगों से चौंसठ लाख रुपये वसूल किये जा सकते हैं। इसके लिए उसने सिंधीया की सहायता लेने का विचार किया और निर्णय किया कि चूण्डावत लोगों से जो यह धन वसूल किया जायेगा, उसका तीन भाग सिंधिया को और बाकी रुपये मेवाड़-राज्य के आवश्यक कार्यों में खर्च किये जाएंगे। अपने कार्य की सिद्धि के लिए जालिमसिंह ने एक योजना बनाकर सिंधिया की सहायता प्राप्त की और अम्बाजी इंगले के सेनापतित्व में मराठों की एक सेना लेकर वह चितौड़ की तरफ रवाना हुआ। दोनों सेनाओं ने चितौड़ की तरफ बढ़ते हुए रास्ते में खेती 292
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