पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२९३

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को बड़ी हानि पहुँचाई । जो स्थान सुन्दर और सम्पन्न थे, उनको लूट लिया। इस अत्याचार में जालिमसिंह ने अपने नाम को सार्थक कर दिया। जालिमसिंह ने हमीरगढ़ पर आक्रमण किया, डेढ़ महीने तक लगातार वहाँ पर युद्ध होता रहा। जालिमसिंह के पास युद्ध की तोपें थी, उसने उस युद्ध में अपनी तोपों का प्रयोग किया। इसलिए हमीरगढ़ के कुओं मे विष डाल दिया गया। इसलिए धीरजसिंह के सैनिकों ने विवश होकर अपने दुर्ग का द्वार खोल दिया। जालिमसिंह ने उस पर अधिकार कर लिया और आस-पास के दूसरे दुर्गों पर कब्जा करके मराठा सेना के साथ चितौड़ की तरफ बढ़ा। रास्ते में चूंडावत लोगों का बुसी नामक इलाका था। जालिमसिंह ने उस पर आक्रमण किया और उस पर भी उसने अधिकार कर लिया। सिंधिया की सेना इन दिनों में मारवाड़ की सहायक थी। चितौड़ में जालिमसिंह की सेनाओं के पहुँचते ही सिंधिया भी अपनी सेना के साथ उसकी सहायता करने के लिए वहाँ पर आ पहुँचा। माधव जी सिंधिया की राणा से मिलने की अभिलाषा थी। इसलिए उसने अपना यह इरादा जालिमसिंह से प्रकट किया। वह राणा को लाने के लिए उदयपुर की तरफ रवाना हुआ। राजधानी से कुछ व्याघ्रमेरु नामक पहाड़ी स्थान पर राणा और माधवजी सिंधिया की मुलाकात हुई। सिंधिया ने राणा के प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। इस समय सिंधिया और जालिमसिंह चितौड़ छोड़कर उदयपुर की तरफ चले आये और अम्बाजी अकेला अपनी सेना के साथ चितौड़ में रह गया। जालिमसिंह ने से इंगले से सहायता ली। लेकिन वे दोनों ही एक दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे। अम्बाजी ने अवसर पाकर विद्रोही चूंडावत सरदार के साथ मेल करने की चेष्टा की और जालिमसिंह का उद्देश्य उसे जाहिर कर देने का निश्चय किया। इसी आधार पर चूंडावत सरदार भीमसिंह के साथ जो राणा का विद्रोही था-अम्बाजी की गुप्त बातचीत हुई और जालिमसिंह की योजना को समझ कर चूंडावत सरदार भीमसिंह ने राणा के प्रति आत्म-समर्पण करना और बीस लाख रुपये देना स्वीकार किया, इस शर्त पर कि यदि राणा अपने यहाँ से जालिम सिंह को निकाल दे। जालिमसिंह अम्बाजी को अपना मित्र समझता था। उज्जैन के युद्ध में त्रयम्बकजी ने उसकी बड़ी मदद की थी। परन्तु राजनीति में इस प्रकार की मित्रता बहुत बड़ा मूल्य नहीं रखती । स्वार्थों का संघर्ष होते ही इस प्रकार मित्रता छिन्न-भिन्न हो जाती है। जालिमसिंह स्वभावंतः राजनीतिज्ञ था। वह अपने हितों को बहुत दूर से देखा करता था। ठीक यही अवस्था अम्बा जी की भी थी। दोनों ही अपने-अपने स्वार्थों को बहुत दूर से देख रहे थे। इसीलिए न तो जालिमसिंह ने कभी अम्बाजी से जाहिर किया था कि मेवाड़ के सम्बन्ध में उसका भीतरी इरादा क्या है और न अम्बाजी ने जालिमसिंह को इस बात को समझने का मौका दिया कि वह राणा की सहायता के नाम पर क्या लाभ उठा सकता है। दोनों ही परिस्थितियों का फायदा उठाना चाहते थे। राणा के साथ चितौड़ में जालिमसिंह के आने पर अम्बाजी ने चूंडावत भीमसिंह का प्रस्ताव उपस्थित किया और कहा कि विद्रोही सरदार राणा के सामने आत्म-समर्पण करके अपने अपराध के बदले में बीस लाख रुपये देने को तैयार है, इस शर्त पर कि जालिमसिंह मेवाड़ से निकाल दिया जाये। अम्बाजी के मुख से सरदार भीमसिंह का प्रस्ताव सुनकर जालिमसिंह ने कहा-“यदि मेरे सम्बन्ध में इस प्रकार की आपत्ति की जाती है तो मैं मेवाड़ छोड़कर कोटा जाने के लिए तैयार हूँ, यदि मेरा चला जाना राणा जी को स्वीकार है।" अम्बाजी ने जालिमसिंह के उत्तर को ध्यानपूर्वक सुना। उसने कहा : "आपका यह उत्तर सुनने में बड़ा सुन्दर मालूम होता है। लेकिन इस पर वही लोग विश्वास करेंगे, जो आपको जानते नहीं हैं।" इसके बाद अम्बाजी ने प्रश्न करते हुए, जालिमसिंह से पूछा-"क्या 293