पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३०३

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और अन्यायपूर्ण न होता। यह बात जरूर है कि उसके ऐसा करने से सम्पूर्ण मराठे उसके शत्रु बन जाते। परन्तु राणा की उससे कोई विशेष हानि न होती । जालिमसिंह की सेना के आने का समाचार पाकर राणा की तरफ से सिंधी, अरवी और गोसई इत्यादि अनेक जातियों के आदमियों को लेकर और छ: हजार सैनिकों की सेना लेकर जयसिंह अपनी शक्तिशाली खींची सेना के साथ युद्ध करने के लिये रवाना हुआ। उसके साथ राणा और उसकी सेना भी थी। मेवाड़ की ये सेनायें चैजाघाट के रास्ते पर पहुँच गयी। वहां पर दोनों में पाँच दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। मराठों के लगातार गोले बरसाने पर भी राणा की सेना में डटी रही । छठे दिन राणा की पराजय हुई और उसके बाद ही उसने वालाराव इंगले को कैद से छोड़ दिया। इस युद्ध के बदले में सम्पूर्ण जिहाजपुर का इलाका और उसका दुर्ग जालिमसिंह ने ले लिया। उसके बाद भी मराठों ने युद्ध का खर्च राणा से माँगा। इसके पहले ही मराठों ने मेवाड़ को लूट कर और समय-समय पर अगणित सम्पत्ति लेकर राणा को ऐसी दुरावस्था में पहुँचा दिया था कि इस समय जो रकम उससे मांगी गयी, उसकी अदायगी का कोई उपाय राणा के पास न था। इस दशा में वह रकम मेवाड़ के निवासिय से बड़ी निर्दयता के साथ वसूल की गयी। संवत 1860 और 1804 ईसवी में होलकर ने निराश होकर दक्षिण छोड़ दिया। इंदौर के युद्ध में पराजित होकर भागने पर होलकर ने भींदर के सुरदार से रुपये माँगे थे, जिसमें भींडर का सरदार अप्रसन्न हुआ था और उसने उसको एक पैसा न दिया था। अतः इस समय होलकर ने भींडर पर आक्रमण किया और उसके सरदार से उसने दो लाख रुपये वसूल किये। इसके बाद वह उदयपुर की तरफ रवाना हुआ। यह समाचार पाते ही राणा घबरा उठा और संधि के लिए उसने अजितसिंह नाम के एक राजपूत को भेजा । अजितसिंह ने होलकर की सेना में पहुँचकर बातचीत की और संधि के नाम पर लालजी मराठा ने चालीस लाख रुपये माँगे । राणा ने इस माँग को सुना । रुपये के नाम पर देने के लिए कुछ न था। लेकिन इन्कार वह किस बल पर करता। अपनी विवश अवस्था में बिना कुछ सोचे समझे उसने उस माँग को मंजूर कर लिया। इन रुपयों का प्रबंध कहाँ से किया जाएगा, इस बात का निर्णय राणा स्वयं कुछ न कर सका। उसका खजाना खाली था। मराठों को रुपया देते-देते राज्य की प्रजा दीन और दरिद्र हो चुकी थी। इस दशा में इन चालीस लाख रुपयों का प्रबन्ध कहाँ से होगा, राणा की समझ में यह न आया। परन्तु इस रकम को विना अदा किये किसी प्रकार छुटकारा न मिल सकता था, इसलिए उसने अपने मंत्रियों, सरदारों और राज्य के अधिकारियों के साथ परामर्श किया। किसी भी दशा में राज्य के निवासियों से रुपये लेने का कार्य आरम्भ किया गया, राणा के पास जो कुछ रह गया था, उसे लेकर, रानियों के आभूषणों को बेचकर और प्रजा से मिले हुए रुपयों को मिलाकर बारह लाख रुपये जमा किये गये । परन्तु अभी बहुत बड़ी रकम बाकी थी। उसकी कोई व्यवस्था न हो सकी । इसलिए बारह लाख रुपये होलकर के पास पहुँचाये गये। बाकी रुपयों की अदायगी के लिए राज परिवार और नगर के प्रमुख कितने ही व्यक्ति होलकर के अधिकार में गिरवी रखे गए और निश्चय हुआ कि जब तक बाकी रुपया अदा न हो जाएगा, गिरवी में रखे गये आदमी होलकर के कैम्प में बराबर मौजूद रहेंगे। इसके बाद होलकर की मराठा सेना ने लावा और विदनौर के दुर्गों पर आक्रमण करके अपने अधिकार में ले लिया और जब वहाँ के सरदारों ने होलकर की माँगी हुई रकम अदा की तो उनके दुर्ग छोड़ दिये गये। होलकर की रुपये की भूख बरावर बढ़ती जा रही थी। उसकी सेना ने देवगढ़ के दुर्ग पर आक्रमण किया और वहाँ के सरदार से होलकर ने साढ़े चार लाख रुपये वसूल 303