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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३४०

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मारवाड़ के सिंहासन पर बैठकर मालदेव ने दस वर्ष व्यतीत किये । इन दिनों में - जैसा कि ऊपर लिखा गया है - अवसर पाकर उसने सभी प्रकार से अपने राज्य की उन्नति की और अपनी सभी शक्तियाँ उसने बड़ी बुद्धिमानी के साथ मजबूत बना ली थीं। इन्हीं दिनों में बाबर की - जिसने मुगल राज्य की भारत में नींव डाली थी और बड़ी सफलता के साथ जिसने दिल्ली सिंहासन पर बैठ कर अब तक राज्य किया - में मृत्यु हो गयी। उसके मरने पर उसका बेटा हुमायूँ उसके सिंहासन पर बैठा । लेकिन वह अपने पिता के विशाल राज्य पर अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सका। वादशाह शेरशाह ने अवसर पाकर हुमायूँ पर आक्रमण किया। शेरशाह युद्ध में जितना शूरवीर था, राजनीति में वह उतना ही निपुण था। उसने युद्ध में हुमायूँ को भयानक रूप से पराजित किया। मुगल बादशाह हुमायूँ शेरशाह के भय से कातर हो उठा। कुछ थोड़े से सैनिकों के साथ अपना परिवार लेकर वह दिल्ली की तरफ भाग गया। इन दिनों में राजा मालदेव के सिवा हुमायूँ को और कोई दिखायी न पड़ा, जहाँ जाकर वह शरण ले सकता। इस दशा में बहुत सोच-विचार कर हुमायूँ ने मारवाड़ पहुँच कर मालदेव से आश्रय तथा सहायता के लिए प्रार्थना की ! बिगड़े हुए दिनों में कोई किसी की सहायता नहीं करता । मुगल सम्राट हुमायूँ के सामने इस समय भयानक दुर्भाग्य था । वह पराजित होकर अपने राज्य से भागा था। दुर्भाग्य के दिनों को काटने के लिए उसे कहीं आश्रय न मिल रहा था। कुछ दिन पहले जिस भारतवर्ष का वह एक वादशाह था, आज कुछ इने गिने दिनों के बाद उसी देश में उसको जीवन रक्षा के लिए कोई स्थान न मिल रहा था। राजा मालदेव के यहाँ भी उस को आश्रय न मिला। इसका कारण था कि वयाना के भीषण युद्ध में राजा मालदेव का इकलौता बेटा अपनी सेना का नेतृत्व लेकर संग्राम सिंह की तरफ से वावर के साथ युद्ध करने गया था। वहाँ पर वह मारा गया। पुत्र का वह शोक राजा मालदेव भूला न था। हुमायूँ बावर का लड़का था और बाबर के साथ युद्ध उसका बेटा मारा गया था। इसलिए असम्मान साथ हुमायूँ को राजा मालदेव के पास से निराश होकर लौटना पड़ा। हुमायूँ को आश्रय न देने के और भी कारण राजा मालदेव के सामने थे। उसका बेटा रायमल तो अभी हाल ही में वावर के द्वारा मारा गया था। लेकिन कन्नौज के पतन से लेकर मालदेव के सामने मुसलमानों की शत्रुता थी। शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज का सर्वनाश करके और दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर कन्नौज पर आक्रमण किया था। उस समय राजा जयचन्द की मृत्यु के साथ-साथ कन्नौज का पतन हुआ था और राठौड़ वंशी राजा जयचन्द के भाई और भतीजों ने कन्नौज से भागकर भारत की मरुभूमि में जाकर आश्रय लिया। अपने पूर्वजों की यह दुरवस्था राजा मालदेव को भूली न थी। इस प्रकार के कितने ही कारणों से हुमायूँ अपनी भीषण विपदा में मालदेव से किसी प्रकार का आश्रय न पा सका और वहाँ से उसे चला जाना पड़ा। राजनीति में स्वार्थ को ही महत्व मिलता है। हुमायूँ को शरण न देने के कारण वादशाह शेरशाह के निकट राजा मालदेव के सम्मान की वृद्धि होनी चाहिए थी। क्योकि उसने उसके शत्रु को आश्रय देने से इनकार किया था। परन्तु शेरशाह के नेत्रों में इसका कोई महत्व न हुआ। वह मुगलों को पराजित करके दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठा था। मारवाड़ का राज्य दिल्ली से बहुत दूरी पर न था। वहाँ का राजा मालदेव अपनी शक्तियों के लिये इस देश में प्रसिद्ध हो रहा था। शेरशाह को ऐसे समय पर उससे भयभीत होना स्वाभाविक था। हुमायूँ के बाद उसका मालदेव के साथ युद्ध करना कभी भी सम्भव हो सकता था। इस दशा में वादशाह शेरशाह के लिये यह जरूरी था कि वह पड़ोसी शक्तिशाली राजा को मिटाकर और शक्तिहीन बनाकर इस देश में शासन करे। 386