पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४००

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गया। वादशाह ने उसको अजीतसिंह के साथ मित्रता पैदा करने के लिये भेजा था। सम्वत् 1779 में अभय सिंह ने साँभर में मुकाम किया और वहाँ पर उसने अपनी शक्तियों को मजबूत बना लिया। उसका पिता अजीतसिंह अजमेर से वहाँ पर आ गया था। जिस प्रकार कश्यप के साथ सूर्य की भेंट हुई थी, अजीत के साथ उस प्रकार उसके पुत्र अभय सिंह का सामना हुआ। नाहरखाँ जिस उद्देश्य से साँभर पहुँचा था, उसको सफल बनाने के लिये वह उपयोगी न था। बातचीत की कटुता और कठोरता के कारण वहाँ पर संघर्ष बढ़ गया और राठौड़ सेना के साथ मुगलों का युद्ध आरम्भ हो गया। नाहरखाँ की छोटी-सी सेना राठौड़ों से पराजित हुई। उसी समय चूड़ामन जाट के लड़के ने आकर अजीतसिंह के सामने आत्म-समर्पण किया। वादशाह मोहम्मद इस समय बड़ी निराशा में था। उसने जो कुछ भी सोचा था, किसी में भी उसे सफलता न मिली। निराश और भयभीत अवस्था में मुगलों का सिंहासन छोड़कर उसने मक्का में जाकर रहने का निर्णय किया। इन्हीं दिनों में उसने सुना कि मारवाड़ के राजा अजीतसिंह ने नाहरखाँ को मार डाला है । वह अत्यन्त क्रोधित हुआ और नाहरखाँ की मौत का बदला लेने के लिये वह एक साथ उत्तेजित हो उठा। उसने मुगल साम्राज्य की समस्त सेना एकत्रित की और उसने उसको आमेर के राजा जयसिंह, हैदरकुली, इरादत खाँ आदि अनेक शूरवीरों के नेतृत्व में युद्ध करने के लिये भेजा। श्रावण के महीने में मुगलों की उस विशाल सेना ने अजमेर में पहुँच कर तारागढ़ को घेर लिया। अभयसिंह उस दुर्ग की रक्षा का भार अमरसिंह को सौंपकर सेना लेकर रवाना हुआ ! मुगल सेना वार महीने तक तारागढ़ में घेरा डाले पड़ी रही। इस समय मुगलों को सम्पूर्ण शक्तियाँ एक साथ मिलकर आयी थी और उनके साथ युद्ध करने के लिये मारवाड़ की अकेली राठौड़ सेना थी। चार महीने पूरे बीत जाने के बाद आमेर के राजा जयसिंह के समझाने-बुझाने पर अजीत सिंह ने वादशाह के साथ सन्धि करना स्वीकार किया। यद्यपि उसको मोहम्मदशाह की नीति पर विश्वास न था। परन्तु मुगल अमीरों के शपथ लेने पर और सन्धि के पालन करने का आश्वासन देने पर अजीतसिंह ने अजमेर छोड़ देना स्वीकार कर लिया। राजकुमार अभयसिंह जयसिंह के साथ वादशाह के शिविर में गया। जाने के पहले यह निश्चय हो गया था कि अभयसिंह वादशाह की अधीनता स्वीकार करेगा और उसके फलस्वरूप उसको आवश्यकतानुसार बादशाह के दरवार में रहना पड़ेगा। इस प्रकार के निर्णय में जयसिंह ने मध्यस्थ का काम किया। निर्भीक अभयसिंह ने अपनी तलवार हाथ में लेकर कहा-“मेरी कुशलता इस पर निर्भर है।" वादशाह के यहाँ पहुँचकर अभयसिंह ने अत्यधिक सम्मान प्राप्त किया। उसने यह समझकर कि मेरे पिता को वादशाह के दाहिने स्थान मिलता है,इसलिये मैं भी उसका अधिकारी हूँ क्यों कि यहाँ पर मैं अपने पिता का प्रतिनिधि बनकर आया हूँ । इसके सम्बन्ध में मुगल दरवार की व्यवस्था क्या है इस पर कुछ भी ध्यान न देकर वह सिंहासन की तरफ आगे बढ़ा। उसी समय मुगल अमीरों में से किसी एक ने अपने संकेत से उसे रोका । उससे अभयसिंह क्रोधित हुआ। उसने हाथ में तलवार लेकर अपने आवेश पूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखा । वादशाह मोहम्मदशाह को यह परिस्थिति बड़ी भयानक मालूम हुई। उसने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया और गले से हीरों का हार उतारकर उसने अभयसिंह को पहना दिया। 446