जिस समय जयपुर का राजा जगतसिंह जोधपुर और मारवाड़ के नगरों को लूटकर अपनी सेना के साथ जयपुर जा रहा था, उस समय इन्हीं चार सामन्तों ने आक्रमण करके मारवाड़ की लूटी हुई सम्पत्ति को जयपुर की सेना से छीन लिया था। सिंह की मृत्यु हो जाने पर जिन सामन्तों ने मानसिंह को फिर से राज सिंहासन पर लाने के लिए चेष्टा की थी, उनमें ओनाड सिंह प्रधान था। इस प्रकार अनाड़ सिंह के न जाने कितने उपकारों का भार मानसिंह के सिर पर था, परन्तु उसने सवको एक साथ भुला दिया। मारवाड़ के जो सामन्त राज्य छोड़कर चले गये थे, उन्होंने जब कोई दूसरा रास्ता न देखा तो सन् 1821 ईसवी में ईस्ट इंडिया कंपनी के पास एक प्रार्थना-पत्र भेजा और उसमें उन्होंने अपने और राजा मानसिंह के बीच मध्यस्थ बन कर निर्णय करने का प्रस्ताव किया। इस प्रार्थना-पत्र को भेजने के बाद एक वर्ष बीत गया। परन्तु कंपनी की तरफ से न तो उसका कोई उत्तर दिया गया और न कोई कार्य किया गया। इस दशा में उन सामन्तों ने अपनी परिस्थितियाँ मेरे सामने रखीं। उसके बाद मैंने उनको कम्पनी की तरफ से संतोषजनक मध्यस्थता स्वीकार करने के लिए जवाव दिलवाया। उसमें यह भी लिखा गया कि यदि समय पर कंपनी ऐसा न करे तो आप लोग अपने अधिकारों का निर्णय कर सकते हैं। सन् 1823 ईसवी तक मारवाड़ की राजनैतिक परिस्थिति इसी प्रकार चलती रही। इन दिनों में राजा मानसिंह ने बुद्धिमानी से काम लेकर राज्य में शांति कायम करने का प्रयल किया होता तो मारवाड़ से सामन्तों के बाहर जाने की नौबत न आती और राज्य में जो अराजकता पैदा हो गयी थी, वह विल्कुल दूर हो जाती। लेकिन राजा मानसिंह ने बुद्धिमानी से काम नहीं लिया। मारवाड़ राज्य के शासन की आलोचना करते हुए इस बात को स्वीकार करना पड़ता है कि इस राज्य के राठौड़ों और सामन्तों ने आवश्यकता पड़ने पर अपने जीवन के जो बलिदान किये थे और जो राज्य के गौरव को रक्षा की थी वह सर्वथा प्रशंसनीय है। यदि राजस्थान के राजपूतों में आपसी फूट न होती और उसके कारण उन्होंने एक, दूसरे को मिटाने की कोशिश न की होती तो जिन बाहरी जातियों ने उनके राज्य में आकर भयानक अत्याचार किये और लूटकर उन राज्यों का विध्वंस और विनाश किया, उनकी नौबत न आती। राजस्थान के राज्यों के पतन के दिनों में राजपूतों ने ईस्ट इंडिया कंपनी का आश्रय लिया और कंपनी ने राजपूतों को संगठित होकर अत्याचारियों का सामना करने के लिए तैयार किया, उस समय बाहरी जातियों के अत्याचार और आक्रमण एक साथ खत्म हो गये। क्या हम पूछ सकते हैं कि आज आक्रमण और अत्याचार करने वाले गजनी, गिलजई, लोदी, पठान, तैमूर और मराठा कहाँ हैं ? राजपूतों के आपसी विद्रोह के कारण इन बाहरी जातियों को आक्रमण और अत्याचार करने का अवसर मिला था। इन जातियों ने संगठित होकर राजपूतों पर इसलिए आक्रमण किये थे कि ये लोग आपस में लड़कर न केवल निर्बल हो गये थे, बल्कि आपसी द्वेष के कारण वे स्वयं एक दूसरे को मिटाने में लगे थे। पतन की इस अंतिम अवस्था में राजपूतों ने अंग्रेजों के साथ मित्रता की और अंग्रेजों ने सहायता करके उनको जिंदगी के सही रास्ते पर ले जाने की चेष्टा की । इसका परिणाम यह हुआ कि राजपूतों को लूटकर और उनका संहार करके जो जातियाँ राजस्थान को नष्ट करने में लगी हुई थीं, उनके साहस छूट गये। राजपूतों के साथ कंपनी की जो संधि हुई है, उसमें पूर्ण रूप से न्याय से काम लिया गया है और राजपूतों के अधिकारों की रक्षा की गयी है। अंग्रेज कंपनी ने दलित और 516
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४७०
दिखावट