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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४७५

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जैनियों की प्रथा के अनुसार पिता की सम्पत्ति सभी लड़कों में वरावर-वरावर वाँटी जाती है। लेकिन मध्य एशिया में जिट जाति और केल्टर के जूट लोगों में सबसे छोटे लड़के को दुगुना हिस्सा दिया जाता है। यदि पिता के जीवन काल में सम्पत्ति का बेटों में वटवारा होता है तो लड़कों के साथ पिता को मिला कर सबके भाग वरावर-वरावर कर लिए जाते हैं और एक-एक भाग उनमें से सब कोई ले लेता है। पिता के मर जाने पर उसका भाग सबसे छोटे लड़के को मिलता है। अपनी संपत्ति का बँटवारा करके पिता प्राय: अपने छोटे पुत्र के साथ रहा करता है। संसार में व्यवसाय करने वाली जातियों की एक बहुत बड़ी संख्या है और वे विभिन्न जातियों के नाम से विख्यात हैं। एक जैन पुरोहित ने व्यासयिक जातियों की तालिका तैयार करने की चेष्टा की थी, यद्यपि उसका वह कार्य पूरा न हो सका। अपनी उस तालिका में जैन पुरोहित ने व्यावसाय करने वाली अठारह सौ जातियों का नाम और परिचय दिया था। इसके बाद डेढ़ सौ व्यावसायिक जातियों के नाम उसको अपने एक जैन मित्र से जो किसी दूर देश में रहता था, और मिले। इसलिए जो तालिका तैयार करने की कोशिश की गई थी, उसे उसने अधूरा ही छोड़ दिया। पाली राजस्थान का ही नहीं, भारतवर्ष का सबसे बड़ा व्यावसायिक नगर उन दिनों में था। वहाँ पर देश के विभिन्त प्रांतों के अतिरिक्त काश्मीर और चीन की बनी हुई वहुत-सी चीजें विकने के लिए आती थीं और उसके बदले में वहाँ के लोग इस देश की वहुत-सी चीजें ले जाते थे जो यूरोप, अफ्रीका, फारस और दूसरे देशों के बाजारों में जाकर विका करती थीं। कच्छ और गुजरात से हाथी दाँत, नावा, खजूर, गोंद, सुहागा, नारियल, रेशमी और बुनात के कपड़े, पशमीना के वस्त्र, चन्दन की लकड़ी, कपूर, रंग विभिन्न प्रकार की औषधियाँ, काफी, मसाले, गंधक आदि वहुत-सी चीजें छकड़ो में भरकर पाली नगर में आती थीं और उन सब के बदले में यहाँ से छींट के वस्त्र, सूखे फल, जीरा, मुलतानी, हींग, चीनी, सोडा, अफीम, प्रसिद्ध तैयार किये हुए वस्त्र, लवणु, शालें, रंगीन कम्वल और विभिन्न प्रकार के वस्त्रों के साथ-साथ और भी बहुत-सी चीजें वहाँ भेजी जाती थीं। सुईबाह, साँचौर, भीनमाल और जालौर होकर छकड़ों में भरा हुआ माल पाली आता था। यहाँ पर दूर-दूर के व्यवसायी एकत्रित होते थे। पाली की वह अवस्था अब नहीं रह गयी। उसका व्यावसायिक गौरव बहुत समय पहले से निर्वल पड़ रहा था। लेकिन बीस वर्ष पहले वहाँ का बढ़ा हुआ व्यवसाय एक साथ खत्म हो गया था। इसका कारण उन दिनों में लगातार होने वाली लूट-मार थी मारवाड़ के मेले-इस राज्य में वर्ष में दो मेले हुआ करते थे। एक तो मूंडवा नामक स्थान में और दूसरा वालोतरा में। मूंडवा के मेले में हाथी, घोड़े और कई दूसरे पशुओं का व्यवसाय होता था। इस मेले में भारत के अन्यान्य नगरों से विकने के लिये बने हुये पदार्थ आते थे और यह मेला माघ महीने के पहले दिन से आरंभ होता था और छः सप्ताह तक बरावर चलता था। उन दिनों में वहाँ वहुत भीड़ होती थी। वालोतरा के मेले में भी घोड़ों, हाथियों और दूसरे पशुओं का क्रय-विक्रय होता था। लेकिन उनकी अपेक्षा दूसरी चीजों के व्यवसाय यहाँ पर मेले के दिनों में अधिक होते थे। देश के लगभग सभी नगरों के लोग यहाँ के मेले को देखने के लिए आते थे। मारवाड़ के पतन के साथ-साथ इन मेलों का भी पतन हो गया। विदेशी आक्रमण और अत्याचार राज्य में जितने ही वढ़ते गये, व्यावसायिक नगरों का उतना ही पतन होता गया। मूंडवा और वालोतरा के प्रसिद्ध मेलों की भी यही अवस्था हुई। 521