मारवाड़ में अपराध और न्याय- इस राज्य में राजनैतिक पतन के साथ-साथ अपराधों के प्रति न्याय का कार्य बहुत शिथिल पड़ गया था। राजद्रोह अथवा राजनैतिक अपराध को तो अपराध समझा जाता था और अपराधी को प्राण दंड दिया जाता था। परन्तु दूसरे अपराधों के प्रति दंड देने की व्यवस्था बहुत निर्बल पड़ गयी थी। यदि कोई मनुष्य किसी मनुष्य को मार डालता तो उसे साधारण दंड दिया जाता था। उसे कुछ दिनों के लिए कारागार में रखा जाता अथवा आर्थिक दंड देकर उसे छोड़ दिया जाता था। कभी-कभी इस प्रकार के अपराधी को राज्य से निकल जाने का आदेश होता था। चोरी और इस प्रकार के अपराधों को साधारण दृष्टि से देखा जाता था। उसको कुछ आर्थिक दंड देकर अथवा कारागार में कुछ दिनों तक रखकर छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार के जिस अपराधी को कारागार में रखते थे, उसके भोजन और वस्त्रों का खर्च चोर की सम्पत्ति से वसूल किया जाता था। यदि उससे यह खर्च वसूल न हो सकता था तो उसको अधिक दिनों का कारावास दंड मिलता था। इन दिनों में राज्य की आर्थिक अवस्था बहुत खराब हो गयी थी, इसीलिए अपराधियों को प्रायः आर्थिक दंड दिया जाता था। राजा विजय सिंह की मृत्यु के बाद राज्य में न्याय का कार्य इतना शिथिल पड़ गया था, जो बिलकुल नहीं के बराबर था। हालत यह हो गयी थी कि लोगों के घरों की अवस्था अधिक शोचनीय थी और कारागार में बिना किसी चिंता के अपराधियों को पेट भर भोजन मिलता था। अपराधों के बढ़ जाने का एक यह भी कारण था। राज्य की यह अवस्था भी इतनी अधिक शिथिल पड़ गयी थी कि अपराध को अपराध नहीं समझा जाता था। जो अपराधी कारागार भेज दिये जाते थे, उनको सुविधायें देने के लिए राज्य के व्यावसायिक लोग चन्दा करते थे और दान के द्वारा एकत्रित रुपये से कारागार में अपराधियों को सुविधायें पहुँचाई जाती थी। इसका कारण राज्य में और विशेष कर राज्य के व्यावसायिक समाज में जैन धर्म का प्रचार था। कारागार के अपराधियों के खाने-पीने के खर्च में राज्य की तरफ से रुपये व्यय नहीं किये जाते थे, धनिक व्यावसायी दान देकर जो सम्पत्ति इकट्ठा करते थे, उसी से अपराधियों के खाने-पीने और वस्त्रों की व्यवस्था होती थी। कभी-कभी यह भी होता था कि राज्य के खजाने से इनके लिए जो रुपये आते थे, वे कारागार के अध्यक्ष के व्यक्तिगत अधिकार में चले जाते थे और कारागार की व्यवस्था दान की सम्पत्ति के द्वारा होती थी। वर्ष के अनेक अवसरों पर समय से पूर्व अपराधियों को छोड़ दिया जाता था। सूर्यग्रहण, चन्द्र ग्रहण, राजपुत्र का जन्म, राजा का अभिषेक इत्यादि अनेक अवसर वर्ष में आया करते थे, जिनमें अपराधियों को कारागार से छोड़ दिया जाता था। दीवानी के सभी मामलों का निर्णय पंचायत के द्वारा होता था। पंचायत के निर्णय से संतुष्ट न होने पर राजा से प्रार्थना करने का अधिकार था। इसके लिए प्रार्थी को नियम के अनुसार निश्चित रुपये राजा के यहाँ जमा कराने पड़ते थे। इस प्रकार की प्रार्थना, प्रार्थी के ग्राम का पटेल राजा के सामने उपस्थित करने का अधिकारी था। पटेल का अर्थ है राज्य की भूमि का अधिकारी छोटा अथवा बड़ा, जिसे शासन की पुरानी प्रणाली में सामन्त कहा जाता था और उस नाम को उसके बाद पटेल अथवा जमींदार कहकर सम्बोधित किया जाने लगा। उस प्रार्थना की स्वीकृति राजा के द्वारा होने पर वादी और प्रतिवादी दोनों पक्षों को उन ग्रामों का नाम देकर निर्णय करना पड़ता था कि वे कहाँ-किस ग्राम में अपना फिर से निर्णय कराना चाहते हैं। जव दोनों पक्षों के द्वारा किसी एक ग्राम का निश्चय हो जाता था, तो उस ग्राम के भूमि के अधिकारी को राजा की तरफ से सूचना दी जाती थी और वह अपने ग्राम के विचारालय में बैठकर उस मामले का फिर से निर्णय करता था। उस ग्राम का निर्णायक 522
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