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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४७७

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या 4. दोनों पक्ष के साक्षियों से शपथ लेकर साक्षी लेता था। इतिहासकार हेरोडाटस कि “मुकदमों का निर्णय करने के लिए इसी प्रकार की शपथ लेने की प्रथा सी में वहुत प्राचीन काल से चली आ रही थी।" साक्षी लोग 'गद्दी की आन' की शपथ लेते थे। राजा के नाम की शपथ लेने का अधिकार केवल राजपूतों को था। अन्य जातियों के साक्षी अपने-अपने धर्म के नाम पर शपथ लेकर साक्षी देते थे। दोनों पक्षों की पूरी वातों को सुनकर निर्णायक अपना निर्णय देता था और लिखे हुए निर्णय पर वह अपनी मुहर लगा देता था। उस निर्णय के विरुद्ध किसी पक्ष को कुछ कहने का अधिकार न होता था। मारवाड़ में राज्य की आमदनी दो तरीकों से होती थी। एक तो कर से और दूसरी माल-गुजारी से। इसमें चार साधन प्रधान थे : 1. खालसा अर्थात् राजा के अधिकार की भूमि का कर। 2. नमक के द्वारा होने वाली आमदनी । 3. व्यावसायिक चीजों पर लिया जाने वाला कर। राज्य के अन्यान्य कर, जो हासिल के नाम से वसूल किये जाते थे पचास वर्ष पहले राजा विजय सिंह के शासनकाल में मारवाड़ के राज्य को सब मिला कर सोलह लाख रुपये की आमदनी होती थी और इस आमदनी का लगभग आधा भाग नमक के द्वारा आता था। लेकिन उसके बाद राज्य की यह आमदनी लगातार घटती गयी और इन दिनों में वह दस लाख रुपये से अधिक नहीं है। सामन्तों के अधिकार में जो जागीरें हैं, उनकी आमदनी का अनुमान राज्य की आमदनी को मिलाकर पचास लाख रुपये है। परन्तु इन दिनों में इसकी आधी आमदनी के वसूल होने पर भी विश्वास करना कठिन मालूम होता है। सामन्तों के अधिकार में जो सेनायें हैं, उनमें पैदल सेनाओं के अतिरिक्त अश्वारोही सैनिकों की संख्या पाँच हजार है। सामन्तों को वार्षिक आमदनी के एक हजार रुपये पर एक अश्वारोही और दो पैदल सैनिक रखने का अधिकार है। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी सामन्त की वार्षिक आय दस हजार रुपये है तो वह दस अश्वारोही और बीस पैदल सैनिक रख सकता है। आवश्यकता के समय अपनी सेना को लेकर सामन्त को राजा की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। राजा की सम्पूर्ण आय, जो राज्य के खजाने में रखी जाती है, उसका अनुमान दस लाख रुपये है। राज दरवार में कर्मचारियों को जो भूमि दी जाती है, उसकी मालगुजारी इसमें शामिल नहीं है। जो मालगुजारी अथवा आमदनी प्रजा से वसूल की जाती है, वह कई तरह की है। अनाज पर जो कर वसूल होता है और जिसकी प्रथा बहुत प्राचीन काल से इस देश में चली आ रही है उसको वटाई अथवा विभाग कर कहा जाता है। कृषक जितना अनाज पैदा करता है, उसका आधा भाग वह राजा को दे देता है और आधे भाग का वह स्वयं मालिक होता है। भारतवर्ष की यह प्रथा पुरानी है। लेकिन उसके प्राचीन नियमों में अब अंतर पड़ गया है। पहले कृषक की पैदावार का एक चौथाई अथवा छठा भाग राजा लेता था। बाकी सव अनाज का अधिकारी कृषक होता था। परन्तु अब राजा का अधिकार बढ़ गया है और वह अब कृषक की पैदावार का आधा भाग लेता है। 523