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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/५०३

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जैतराव का वहुत सम्मान किया, जिससे प्रभावित होकर जैतराव ने भावलपुर राज्य के जीते हुए नगरों से अपना अधिकार हटा लिया और भावलपुर से लौटकर चला आया। इससे सूरतसिंह उससे बहुत अप्रसन्न हुआ और उसको जो सेनापति का पद दिया था, उसे उसने छीन लिया। बागोर के युद्ध में भाटी लोग सूरतसिंह की सेना के द्वारा पराजित हो चुके थे। इसलिए दो वर्ष तक वे लोग युद्ध की तैयारी करते रहे। इसके बाद वे लोग सूरतसिंह को उसका वदला देने के लिए रवाना हुए। बीकानेर राज्य के लोगों का जो असन्तोष सूरतसिंह के सम्बन्ध में चल रहा था, उसे इन दिनों में सूरतसिंह ने खत्म कर दिया था। इसलिए उसको भाटी लोगों का कोई डर न था और वह उनसे युद्ध करने के लिए अपनी सेना लेकर राजधानी से रवाना हुआ। भाटी लोगों के साथ वीकानेर की सेना ने फिर से युद्ध किया और भयानक रक्तपात के वाद उसने भाटी लोगों को पराजित किया। इसके बाद भी सन् 1805 ईसवी तक भाटी लोग समय-समय पर सूरत सिंह से युद्ध करते रहे। अंत में बीकानेर की सेना ने भाटी लोगों की राजधानी भटनेर पर आक्रमण किया। वहाँ के राजा जाब्ताखाँ ने छः महीने तक युद्ध किया और अंत में उसने आत्म समर्पण कर दिया। सूरतसिंह ने भटनेर को अपने राज्य में मिला लिया और जाब्ताँ खाँ वहाँ से रहानियाँ नामक स्थान में जाकर रहने लगा। इन्हीं दिनों में मारवाड़ के सामन्त सवाई सिंह ने वहाँ के राजा मानसिंह को सिंहासन से उतारकर धौकल सिंह को राज्याधिकारी बनाने की चेष्टा की थी और इसके लिए राजा जयपुर को तैयार किया। सवाई सिंह ने राजा सूरतसिंह से भी प्रार्थना की और सूरतसिंह ने अपनी सेना भेजकर मानसिंह के युद्ध में सवाई सिंह की सहायता की, इसका वर्णन मारवाड़ के इतिहास में किया जा चुका है। उस संघर्ष के दिनों में सूरत सिंह ने मारवाड़ के फलोदी नगर पर अधिकार कर लिया। परन्तु जव उसे धौकल सिंह का पक्ष निवल मालूम हुआ तो वह अपनी राजधानी को लौट आया। उन्हीं दिनों में अपनी शक्तियाँ मजबूत वनाकर जव मानसिंह ने फलोदी पर फिर से अधिकार कर लिया, उस समय सूरतसिंह ने मानसिंह से मेल करके बहुत रुपये उसको भेंट में दिये। मानसिंह के विरुद्ध धौकलसिंह का पक्ष लेकर सूरतसिंह ने अपनी बुद्धिमता का परिचय नहीं दिया। इसीलिए उसको वहाँ से अपमानित होकर भागना पड़ा। इससे उसने वीकानेर के गौरव को क्षति पहुँचायी। अपने इस अपराध के वदले राज्य की लगभग पाँच वर्ष की आमदनी चौवीस लाख रुपये उसे मानसिंह को दे देने पड़े। इस क्षति और अपमान की पीड़ा से सूरत सिंह बीमार हो गया और उस बीमारी में उसका ठीक होना लोगों को असम्भव दिखायी देने लगा। किसी प्रकार उसे रोग से मुक्ति मिली और उसने एक तरह से नया जीवन प्राप्त किया। सूरतसिंह ने अपने राज्य की प्रजा पर लगातार कर के वोझ वढ़ाकर भयानक अत्याचार किये। वह स्वयं अपने इस अत्याचार को अनुभव करता था और अपने इन पापों से मुक्ति पाने के लिए उसने ब्राह्मणों और पुरोहितों को वहुत-सा धन दान में दिया था। इसके फलस्वरूप ब्राह्मण उसे हमेशा घेरे रहते थे और अपने आशीर्वादों से उसको प्रसन्न करने की चेष्टा करते थे। 549