पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

और उसके लिए अपने घर पर रह कर वह राज्य के काम आता है। उसकी सेवायें राज्य के भीतर और बाहर सर्वत्र मानी जाती हैं। उसका पट्टा स्थायी नहीं होता। एक निश्चित समय के वाद वह फिर लिखा जाता है और पुराना रद्द कर दिया जाता है। इसके लिए ग्राम्य ठाकुर सामन्त को निर्धारित नियमों का पालन करना पड़ता है और राजा को नजराना देना पड़ता भूमिया सामन्त को इसी प्रकार पट्टे पर भूमि मिलती है। लेकिन उसके पट्टे के नियम दूसरे होते हैं, उसका पट्टा विना किसी कारण के रद्द नहीं होता और उसे नया नहीं कराना पड़ता। भूमिया अपने पट्टे का दीर्घकाल तक प्रयोग करता है। उसके लिए उसे कोई नजराना नहीं देना पड़ता है। लेकिन उसका साधारण किराया वार्षिक उसे अदा करना पड़ता है। इसके साथ ही उसको आवश्यकता पड़ने पर राज्य में या बाहर निश्चित समय के लिए काम करना पड़ता है। मेवाड़ राज्य में ये भूमिया राजपूत ठीक उसी प्रकार के सामन्त पाये जाते हैं जिस प्रकार के यूरोप के राज्यों में बिना किसी शर्त के भूमि के अधिकारी सामन्त होते थे। परसिया में इस प्रकार के सामन्तों को जमींदार कहा जाता था। उन जमींदारों और मेवाड़ के भूमिया राजपूतों में कोई अंतर नहीं है। भूवृत्ति का पुनर्गहण जो सामन्त मेवाड़ राज्य में बहुत दिनों से भूमि अधिकारी रहे हैं, उनकी भूमि पर अपनी इच्छा से अथवा किसी कारण के पैदा होने पर राणा अपना अधिकार कर सकता है अथवा नहीं, यह प्रश्न सदा से विवादपूर्ण रहा है। प्राचीनकाल में यूरोप के राज्यों में शासन की जो प्रणाली प्रचलित थी, उसके विधान के अनुसार वहाँ पर सामन्त लोग अपने जीवन-भर मिली हुई भूमि के अधिकारी रहते थे और वहाँ का नियम आज भी वैसा ही है। किसी सामन्त की मृत्यु के बाद उसका अधिकृत क्षेत्र राजा के अधिकार में आ जाता है। यूरोप की यह प्रणाली अनेक अंशों में मेवाड़ की प्रथा से भिन्न है। यहाँ पर जिस सामन्त को सनद् देकर भूमि दी जाती है, उसका निर्णय उसी सनद अथवा उसके पट्टे में ही कर दिया जाता है। इस प्रकार का निर्णय मेवाड़ में प्रचलित विधान के अनुसार होता है। मेवाड़ राज्य में किसी सामन्त के मरने पर उसका उत्तराधिकारी राणा के सम्मान में नजराना देकर और राणा के द्वारा अभिषिक्त होकर सामन्त होने का पद प्राप्त करता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मृत सामन्त के उत्तराधिकारी को सदा से स्वीकार करते चले आ रहे हैं इसलिए उनका यह अधिकार प्रयोग में न लाये जाने के कारण विवादपूर्ण बन गया . .. है - इसके सम्बंध में अनुसंधान करने के बाद स्वीकार करना पड़ता है कि मृत सामन्त के उत्तराधिकारी की प्रार्थना को स्वीकार करना और न करना राणा के अधिकार में रहा है। राणा संग्रामसिंह के शासनकाल में इस प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई थी और उस समय भी उत्तराधिकारियों को स्वीकार किया गया था। लेकिन लगभग दो शताब्दी से यह प्रथा मेवाड़ में बंद हो गई है। इसके पहले सामन्तों का अधिकृत राज्य, निर्धारित समय के पश्चात् मेवाड़ का राणा किसी दूसरे सामन्त को दे देता था और वह सामन्त जिसकी सनद का निर्धारित समय खत्म हो जाता था, अपने परिवार को लेकर पशुओं और नौकरों के साथ चुप्पाना की जंगली भूमि में रहने के चला जाता था। मेवाड़ और गुजरात के बीच एक पहाड़ी और जंगली देश है। वह मेवाड़ के दक्षिण-पश्चिम में है । उसी देश को चुप्पान कहा जाता है। । 88