पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/८९

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इन्हीं परिस्थितियों में कितने ही शक्तावत सामन्त अरावली के पहाड़ी स्थानों में जाकर रहने लगे थे और चूण्डावत सामन्त चम्बल नदी के निकटवर्ती स्थानों को छोड़कर मेवाड़ की पूर्वी सीमा के निकट पहाड़ी स्थानों में रहने के लिए चले गये थे। उन दिनों में सामन्त का पट्टा एक निश्चित समय के लिए होता था। उस समय के बीत जाने पर न केवल सामन्त का पट्टा रद्द हो जाता था, बल्कि सामन्त राज्य के उस क्षेत्र को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर. अथवा दूसरे राज्य में रहने के लिए चला जाता था और वहाँ पर भूमि देकर उसे सामन्त स्वीकार कर लिया जाता था। उन दिनों में सामन्तों के पट्टे आम तौर पर तीन वर्ष के लिए स्वीकार किये जाते थे। उसके बाद उनको किसी नये स्थान में भेज दिया जाता था और वहाँ पर पहुँचकर वे सामन्त बना लिये जाते थे। सभी सामन्त इन नियमों के साथ बंधे हुए थे। किसी को राज्य की इस व्यवस्था पर असंतोष करने का मौका न था। सामन्त के पट्टे को एक निश्चित समय के लिए निर्धारित कर देना और उसके वाद उस सामन्त को किसी नये स्थान में भेजकर सामन्त वनाने की नीति मेवाड़ राज्य में कुछ विशेष अर्थ रखती थी। इसका सम्बंध राजनीति के साथ है। किसी एक ही स्थान पर अधिक समय तक सामन्त वहाँ के स्त्री-पुरुषों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेता है। इसका वह किसी समय दुरूपयोग कर सकता है और राणा के विरुद्ध उसके द्वारा विद्रोह करने पर वहाँ की प्रजा राणा के विरुद्ध तलवार उठा सकती है। अपनी प्रजा के साथ इस उत्पन्न होने वाली अवांछनीय परिस्थिति से बचने के लिए मेवाड़ राज्य के राणाओं ने इस प्रकार की नीति का आश्रय लिया था। राणा की इस राजनीतिक सूझ को हमें स्वीकार करना चाहिए। एक निर्धारित समय के पश्चात् सामन्त के परिवर्तन की प्रथा जब तक मेवाड़ राज्य में प्रचलित रही, उस समय तक राज्य का कोई भी सामन्त राणा के साथ विद्रोह करने का साहस न कर सका। परिवर्तन की उस प्रथा ने राणा और सामन्त के सम्बंध को अटूट वना दिया था। राज्य पर आयी हुई विपदाओं के समय सभी सामन्त शत्रुओं के आक्रमणों का जवाव देने में अपनी कोई शक्ति उठा न रखते थे और राज्य की रक्षा में शत्रुओं से लड़ते हुए बलिदान हो जाने में अपना गौरव समझते थे। मेवाड़ की इस परिवर्तनशील प्रथा का जिसमें सामन्त अपनी भूमि का स्थायी रूप से पट्टा पाते थे, समर्थन करते हुये विद्वान इतिहासकार गिवन लिखता है- “प्राचीन काल में 'इसी प्रकार की प्रथा का प्रचार फ्रांस में भी था। सामन्तों को जो भूमि दी जाती थी, उसका एक निश्चित समय रहता था।" जागीरदारी प्रथा का अनुसंधान करते हुये प्राचीन इतिहासकार कांगटेस्की ने भी इसी प्रथा का उल्लेख किया है, जिसका समर्थन गिवन ने अपने ग्रंथ में किया है। सामन्तों को भूमि देने के सम्बंध में तीन प्रकार के नियम प्रचलित हैं- (1) मियादी सामन्त, (2) चिरस्थायी सामन्त और (3) वंशगत सामन्त । किसी सामन्त की मृत्यु हो जाने के पश्चात् उसके पुत्र, प्रपौत्र उत्तराधिकारी होकर क्रम से उस जागीर का अधिकार प्राप्त करते हैं। लेकिन उनके इस अधिकार की स्वीकृति राणा पर निर्भर है। वह उनको अनधिकारी घोषित कर सकता है । जागीरदारी प्रथा का यह नियम वहुत पुराना है। राणा के सामन्तों में राठौड़, चौहान, परमार, सोलंकी और भाटी आदि सभी राजवंशों के लोग थे। सभी के साथ राणा के वैवाहिक कार्य होते थे। इन सम्बंधों ने उन सबके बीच 89