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पथ और पाथेय।
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भी कार्यसाधनमें सहायक मान लेनेपर अन्त:करणको विकृतिके अधीन होनेसे रोकनेकी सारी स्वाभाविक शक्ति चली जाती है,-न्याय- धर्मके ध्रुवकेन्द्रसे एक बार भी हट जानेपर बुद्धिका नाश हो जाता है, कर्ममें स्थिरता नहीं रह जाती। ऐसी दशामें विश्वव्यापिनी धर्म-व्यव- स्थाके साथ अपने भ्रष्ट जीवनका सामञ्जस्य फिर स्थापित करनेके लिये प्रचंड संघात अनिवार्य हो जाता है ।

कुछ कालसे हमारे देशमें यही प्रक्रिया चल रही है, यह बात हमें अवनतहृदय होकर दुःखके साथ स्वीकार करनी ही पड़ेगी। यह आलो- चना हमें अत्यन्त अप्रिय हैं, केवल इसीलिये उसे चुपचाप दबा रखना या उसपर अतिशयोक्तिका परदा डाल देना और इस प्रकार व्याधिको घातक होनेका अवसर देना हमारा या आपका किसीका कर्तव्य नहीं है।

“हम यथासाध्य विलायती वस्तुओंका व्यवहार न कर देशी शिल्पकी रक्षा और उन्नतिका प्रयत्न करेंगे," ऐसी आशंका न कीजिए कि हम इसके विरुद्ध कुछ कहेंगे । आजसे बहुत दिनों पहले जब हमने लिखा था--

निज हाथहिं जो अन्न पकावै । अथवा माटे वस्त्र बनावै ॥
जदपि कदन्न कुवस्त्रहु होई । सुमधुर सुन्दर लागत दोई ॥

उस समय लार्ड कर्जनपर हमारे क्रोध करनेका कोई कारण नहीं था और स्वदेशी भाण्डार स्थापित करके देशी वस्तुओंका प्रचार कर- नेकी चेष्टा करनेमें हमें समयकी धाराके विरुद्ध ही चलना पड़ा था।

तथापि, विदेशी वस्तुओंके स्थानपर स्वदेशी वस्तुओंका प्रचार करना कितना ही महत्त्वशाली कार्य क्यों न हो, पर हम यह किसी प्रकार