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राजा और प्रजा।
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ऐसी नजीर पेशकर हम अपने आपको भुला सकते हैं, पर विधा- ताकी आखाँमें धूल नहीं झोंक सकते । जातिभिन्नत्वके रहते हुए भी स्वराज्य चलाया जा सकता है या नहीं, वास्तवमें यही मुख्य प्रश्न नहीं है । विभिन्नता तो किसी न किसी रूपमें सभी जगह है, जिस परिवारमें दस आदमी हैं वहाँ दस विभिन्नताएँ हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि विभिन्नताके भीतर एकताका तत्त्व काम कर रहा है या नहीं । सैकड़ों जातियोंके होते हुए भी यदि स्विटजरलैण्ड एक हो सका तो मानना पड़ेगा कि एकत्वने यहाँ भिन्नत्वपर विजय प्राप्त कर ली है। वहाँके समाजमें भिन्नत्वके रहते हुए प्रबल ऐक्य धर्म भी है। हमारे देशमें विभिन्नता तो वैसी ही है; पर ऐक्य धर्मके अभावसे वह विश्लिष्ट- नामें परिवर्तित हो गई है और भाषा, जाति, धर्म, समाज और लोका- चारमें नाना रूप और आकारों में प्रकट होकर इस बृहत् देशके उसने छोटे बड़े हजारों टुकड़े कर रक्खे हैं ।

अतएव उक्त दृष्टान्त देखकर निश्चिन्त हो बैठनेका तो कोई कारण नहीं देख पड़ता । आँम्ब मूंदकर यह मंत्र रटनेसे धर्म या न्यायके देवताके यहाँ हमारी मुनवाई न होगी कि हमारा और सब कुछ ठीक हो गया है, बस अब किसी प्रकार अँगरेजोंसे गला छुड़ाते ही बंगाली, पंजाबी, मराठे, मदरासी, हिन्दू, मुसलमान सब एक मन, एक प्राण, एक स्वार्थ हो स्वाधीन हो जायेंगे।

वास्तवमें आज भारतवर्षमें जितनी एकता दिखाई पड़ती है और जिसे देखकर हम सिद्धिलाभको सामने खड़ा समझ रहे हैं नई यांत्रिक है, जैविक नहीं । भारतकी विभिन्न जातियोंमें यह एकता जीवनधर्मकी प्रेरणासे नहीं प्रकट हुई है, किन्तु एक ही विदेशी शासनरूपी रस्सीने हमें बाहरसे बाँधकर एकत्र कर दिया है।