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राजा और प्रजा।
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अपमान हमारी ऐसी प्रवृत्तिको उत्तेजित करते हैं जो आघात करना ही जानती है, धैर्यके लिये जिसमें कोई स्थान ही नहीं है, और जो विनाश स्वीकार करके भी अपनी चरितार्थताको ही-अँगूठा तोड़ लेना मंजूर करके भी ठोकर मारनेका ही सार्थक समझती है। पर इस आत्माभिमानजनित प्रमत्तताको दूर भगानेके लिये हमारे अन्त:- करणमें गम्भीर आत्मगौरव सञ्चार करनेकी भीतरी शक्ति क्या भारत- वर्ष हमको प्रदान न करेगा ? जो निकट आकर हमको पहचाननेमें घृणा करती है, जो दूरसे हमारे लिये विद्वेषके उद्गार निकालती है, वही मुखकी वायुसे फुलाई हुई समाचारपत्रोंकी ध्वनि, इंग्लैण्डके टाइम्स और इस देशके टाइम्स आफ इंडियाकी वही विरोध करनेवाली तीक्ष्ण वाणी, ही क्या अंकुश बनकर हमें विरोधके पथमें अन्धवेगसे चालित करती रहेगी? क्या इसकी अपेक्षा अधिक सत्य, अधिक नित्य- वाणी हमारे पूर्वजोंके मुखसे कभी नहीं निकली है ? वह वाणी जो दूरको समीप लानेको कहे, परायेको अपना बनानेका उपदेश दे ? क्या वे शान्तिपूर्ण गम्भीर सनातन मंगल-वाक्य ही आज परास्त होनेवाले हैं ? भारतवर्ष में हम मिलेंगे और मिलावेंगे, वही दुस्साध्य साधना करेंगे जिससे शत्रुमित्रका भेद मिट जाय | जो सबसे ऊँचा सत्य है, जो पवि- त्रताके तेजसे, क्षमाके वीर्य्यसे, प्रेमकी अपराजित और अपराजेय शक्तिसे परिपूर्ण है, हम उसको कदापि असाध्य नहीं मानेंगे, निश्चित कल्याण समझकर उसको सिरपर धारण करेंगे । दुःख और वेदनाके काँटोंसे परिपूर्ण पथसे ही आज हम चलकर उदार और प्रसन्न मनसे सारे विद्रोहोंके भावोंको दूर भगा देंगे, जानमें अथवा अनजानमें अखिल विश्वके मनुष्य इस भारतक्षेत्रमें मनुष्यत्वके जिस परम आश्चर्यमय मन्दि- रको अनेक धर्मों, अनेक शास्त्रों और अनेक जातियोंके पत्थरोंसे निर्माण