सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
राजा और प्रजा।
१९८

है कि हमें विदेशी कपड़ेके बहिष्कारका सुयोग मिल जाय। क्या केवल इसलिये हम इनके नाशका उपाय करें कि इससे हमारे विदेशी शासक हमारे पुरुषार्थका पता पावेंगे? इनके रहनेके कारण हमारे धर्मको क्लेश हो रहा है, हमारा मनुष्यत्व संकुचित हो रहा है, इनके रहनेसे हमारी बुद्धि संकीर्ण रहेगी, हमारे ज्ञानका विकास न होगी, हमारा दुर्बल चित्त सैकड़ों अन्ध संस्कारों से लिपटा रहेगा, भीतर और बाहरकी अधीनताके बन्धनोंको काटकर हम निर्भय और निस्संकोच होकर विश्वसमाजके सामने सीधे खड़े न हो सकेंगे। इसी भयरहित, बाधारहित विशाल मनुष्यताके अधिकारी बननेके लिये हमें परपरके साथ परस्परको धर्मबन्धनमें बाँधनेकी आवश्यकता है। इसके बिना मनुष्य न किसी प्रकार बड़ा हो सकता है, न किसी प्रकार सत्य। भारतमें जो लोग आए हैं अथवा आते हैं वे सभी हमारी पूर्णताके अंश होंगे, सभीको लेकर हम पूर्ण बनेंगे। भारतमें विश्वमानवकी एक अति महान् समस्याकी मीमांसा होगी। वह समस्या यह है कि मानवसमाजमें वर्णकी, भाषाकी, स्वभावकी, आचरणकी और धर्मकी विचित्रता है—नरदेवता इस विचित्रताकी बदौलत ही विराट् हुए हैं—भारतके मन्दिरमें हम इसी विचित्रताको एकाकारमें परिणत करके उसके दर्शन करेंगे। पृथक्ताको निर्वासित वा लुप्त करके नहीं किन्तु सर्वत्र ब्रह्मकी व्यापक उपलब्धि द्वारा मनुष्योंके प्रति सर्वसहिष्णु परम प्रेमके द्वारा, उच्च और नीच, अपने और पराए संबकी सेवाको भगवान्की सेवा माननेके द्वारा। और कुछ नहीं; केवल शुभ चेष्टासे, केवल सत्प्रयत्नसे देशको जीत लो, जो तुमपर सन्देह करते हों उनके सन्देहको जीत लो, जो तुमसे द्वेष रखते हों उनके विद्वेषको परास्त कर दो। बन्द दरवाजेको धक्का दो, बार बार