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राजा और प्रजा।
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लेकिन जिस अवस्थामें हम लोग पड़े हुए हैं उसे देखते हुए हम लोगोंके मुँह से ऐसी बातोंका निकलना कुछ शोभा नहीं देता। इसीलिये कहनेमें भी हमें लज्जा मालूम होती है। विवश होकर प्रेमकी भिक्षा करनेके समान दीनता और किसी बातमें नहीं है। और बीच बीचमें इस सम्बन्धमें हम लोगोंको दो चार उल्टी-सीधी बातें सुननी भी पड़ती हैं।

हमें याद आता है कि कुछ दिन हुए भक्तिभाजन प्रतापचन्द्र मजूमदार महाशयके एक पत्रके उत्तरमें लंडनके 'स्पेक्टेटर नामक पत्रने लिखा था कि आजकलके बंगालियोंमें बहुतसे अच्छे लक्षण हैं; लेकिन उनमें एक दोष दिखाई पड़ता है । उनमें Sympathy ( सहानु- भूति ) की लालसा बहुत बढ़ गई है।

हमें अपना यह दोष मानना पड़ता है और अबतक हम जिस प्रकार सब बातें कहते आए हैं उसमें बराबर जगह जगह इस दोषका प्रमाण मिलता है । अँगरेजोंसे अपना आदर करानेकी इच्छा हम लो- गोंमें कुछ अस्वाभाविक परिमाणमें बढ़ गई है । लेकिन उसका कारण यह है कि हम लोग स्पेक्टेटरकी तरह स्वाभाविक अवस्था नहीं हैं। हम लोग जिस समय बहुत प्यासे होकर एक लोटा पानी माँगते हैं, उस समय हमारे राजा चटपट हमारे सामने आधा बेल (फल) ला रखते हैं ! किसी विशिष्ट समय पर आधा बेल बहुत कुछ उपकारक हो सकता है, लेकिन उससे भूख और प्यास दोनों एक साथ ही दूर नहीं हो सकतीं । अँगरेजोंकी सुनियमित और सुविचारित गवर्नमेण्ट बहुत उत्तम और उपादेय है, लेकिन उससे प्रजाके हृदयकी तृष्णा नहीं मिट सकती बल्कि उल्टे जिस प्रकार बहुत अधिक गरिष्ठ भोजन कर-