जहाँ थोड़ा बहुत अंगरेजी ठाठ बनाया जाता है वहाँ असमानता
या बेढंगापन और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है। उसका फल कुछ
अधिक शोभायुक्त नहीं होता । इसी लिये रुचिपर दोहरा आघात होता
है । अपने पुराने अभ्यासके कारण भारतवासियोंके निकट आकृष्ट होनेमें
अँगरेज मनमें यही समझते हैं कि यह बड़ा अन्याय हो रहा है---ठगे
जा रहे हैं और इस कारण उनका मन दूने वेगसे प्रतिहत होता है ।
आधुनिक जापान युरोपीय सभ्यताका ठीक ठीक अनुयायी हो गया है । उसकी शिक्षा केवल बाहरी शिक्षा नहीं है । कल-कारखाने, शासन-प्रणाली, विद्या-विस्तार आदि सभी काम वह स्वयं अपने हाथोंसे चलाता है। उसकी पटुता देखकर युरोप विस्मित होता है और उसे ढूँढ़नेपर भी कहीं कोई त्रुटि नहीं मिलती । लेकिन फिर भी युरोप अपने विद्यालयके इस सबसे बड़े छात्रको विलायती वेश-भूषा और आचार-व्यवहारका अनुकरण करते हुए देखकर विमुख हुए बिना नहीं रह सकता । जापान अपनी इस अद्भुत कुरुचि, इस हास्यजनक असंगतिके सम्बन्धमें स्वयं बिलकुल अन्धा है । किन्तु युरोप इस छद्म- वेशी एशियावासीको देखकर मनमें बहुत कुछ श्रद्धा रखनेपर भी बिना हँसे हुए नहीं रह सकता।
और फिर क्या हम लोग युरोपके साथ और समस्त विषयों में इतने अधिक एक हो गए हैं कि बाहरी अनेकता दूर करते ही असंगति नामक बहुत बड़ा रुचिदोष न होगा ?
यह तो हुई एक बात, दूसरी बात यह है कि इस उपायसे लाभ तो गया चूल्हेमें उल्टे मूल धनकी ही हानि होती है । अँगरेजोंके साथ जो अनेकता है वह तो है ही, दूसरे अपने देशवासियोंके साथ भी