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अँगरेज और भारतवासी।
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कर उसके मुँहपर हाथ रखकर उसे बन्द कर देते हैं और कहते हैं कि अजी चुप रहो, चुप रहो । अगर अँगरेज लोग यह बात सुन लेंगे तो वे अपने मनमें क्या कहेंगे?

और फिर हम लोगोंके दुर्भाग्यसे एक बात यह भी है कि बहुतसे विषयोंमें अँगरेजोंकी दृष्टि भी कुछ स्थूल है। भारतवासियोंमें जो थोड़ेसे विशेष गुण हैं और जो विशेष आदरके योग्य हैं उन्हें अँगरेज लोग चुनकर ग्रहण नहीं कर सकते। चाहे अवज्ञाके कारण हो और चाहे किसी और कारणसे हो, वे विदेशी आवरण भेद नहीं कर सकते और न उसे भेद करना ही चाहते हैं। इसका एक दृष्टान्त देख लीजिए । विदेशमें रहकर जर्मन लोगोंने जिस प्रकार एकाग्रताके साथ हम लोगोंके संस्कृत शास्त्रोंका अनुशीलन किया है उस प्रकार एकाग्रताके साथ, स्वयं भारतमें उपस्थित रहकर, अँगरेजोंने नहीं किया है । अँग- रेज लोग भारतवर्ष में ही अपना जीवन बिताते हैं और सारे देशपर उन्होंने पूर्णरूपसे अधिकार कर लिया है परन्तु देशी भाषाओंपर वे अधिकार नहीं कर सके हैं।

इस लिये अँगरेज लोग भारतवासियोंको ठीक भारतवर्षीय भावसे समझने और श्रद्धा करने में असमर्थ हैं। इसी लिये हम लोग विवश होकर अँगरेजोंको अँगरेजी भावोंसे ही मुग्ध करनेकी चेष्टा करते हैं । जो बात हम अपने मनमें समझते हैं वह अपने मुंहसे नहीं कहते । कार्यरूपमें हम जो कुछ करते हैं समाचारपत्रों में उसे बहुत बढ़ाकर लिखते हैं। हम लोग समझते हैं कि अँगरेज लोग people ( सर्व साधारण) नामक पदार्थको 'हौआ' समझते हैं । इसी लिये हम लोग भी किसी न किसी प्रकार चार आदमियोंको इकट्ठा करके people बनकर और अपने स्वरको गम्भीर करके अँगरेजोंको डराते हैं। आपसमें हम लोग