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राजनीतिके दो रुख।
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यदि ऐसे न्याय और अन्यायका विचार किया जायगा तो वह विचार ठहरेगा भी नहीं। परन्तु लंकाशायर कोई स्वप्नकी चीज नहीं है। भारतव- र्षका दुःख जिस प्रकार सत्य है लंकाशायरका लाभ भी ठीक उसी प्रकार सत्य है, बल्कि लंकाशायरके लाभका बल कुछ अधिक ही है ! मान लो कि हमने भारतमंत्रीकी सभामें लंकाशायरवालोंके हानि-लाभका ध्यान छोड़कर कोई कानून पास कर लिया, लेकिन लंकाशायरवाले हमें क्यों छोड़ने लगे? बाबाजी तो कमलीको भले ही छोड़ दें लेकिन कम- ली ही बाबाजीको नहीं छोड़ती और फिर विशेषत: इस कमलीमें तो बहुत अधिक जोर है।

यदि चारों ओरकी अवस्थाओंकी उपेक्षा करके चटपट कोई कानून पास कर दिया जाय और फिर अन्तमें विवश होकर उसी कानूनको रद करना पड़े तो इसमें प्रतिष्ठा भी नहीं रह जाती और फिर इस ओरकी कैफियत भी कुछ वैसी सुविधाजनक नहीं है । नवाबोंकी तरह यह नहीं कहा जा सकता कि यदि हमें किसी बातकी कमी होगी तो हमारा जिस तरह जी चाहेगा उस तरह हम उसकी पूर्ति कर लेंगे। और दूसरी और न्यायबुद्धिसे जो कुछ कहा जाता है उसे सम्पन्न करनेमें भी बहुतसे ऐसे विघ्न पड़ते हैं जो किसी प्रकार दूर ही नहीं किए जा सकते। और फिर सबसे बढ़कर शोचनीय बात तो यह है कि सर्वसाधारणके निकट अपनी यह संकटपूर्ण अवस्था बतलानेमें भी लज्जा जान पड़ती है।

ऐसे ही समयपर जब हम लोग देशी सभाओं और देशी समाचार- पत्रोंमें उपद्रव करना आरम्भ कर देते हैं तब साहब लोग बीच बीचमें हम लोगोंको दंड देते हैं और गवर्नमेन्ट चाहे भले ही हम लोगोंपर हाथ छोड़नेमें कुछ संकोच करे लेकिन छोटे छोटे कर्मचारी जब किसी अवसरपर हम लोगोंको अपने हाथमें पा जाते हैं तब फिर वे हमें छोड़ना नहीं चाहते । और भारतवर्षीय अँगरेजोंके बड़े बड़े समाचार-