कण्ठ-रोध।*[१]
इस समय हम जिस भाषामें प्रबन्ध पढ़नेके लिये उद्यत हुए हैं वह भाषा यद्यपि बंगालियोंकी भाषा है, दुर्बलोंकी भाषा है, विजितजातिकी भाषा है तथापि उस भाषासे हमारे शासक लोग डरते हैं। इसका एक कारण है, वे लोग यह भाषा नहीं जानते और जहाँ अज्ञानका अन्धकार होता है वहीं अन्य आशंकाके प्रेतका निवास होता है।
कारण चाहे कुछ ही क्यों न हो लेकिन जो भाषा हमारे शासक लोग नहीं जानते और जिस भाषासे वे लोग मन ही मन डरते हैं उस भाषामें उन लोगोंके साथ बातचीत करनेमें हमें उनसे भी अधिक डर लगता है। क्योंकि इस बातका विचार उन्हीं लोगोंके हाथमें है कि हम लोग किस भावसे कौनसी बात कहते हैं और हम लोगोंकी बातें असह्य वेदनाके कारण मुँहसे निकलती हैं अथवा दुःसह स्पर्धाके कारण। और इस विचारका फल कुछ ऐसा वैसा नहीं है।
हम लोग विद्रोही नहीं है, बहादुर नहीं हैं और समझते हैं कि शायद नासमझ भी नहीं हैं। हम लोग यह भी नहीं चाहते कि उठा हुआ राजदण्ड हम लोगोंपर गिर पड़े और हम अकस्मात् अकालमृत्युके मुँहमें जा पड़ें। लेकिन हम स्पष्ट रूपसे यह बात नहीं जानते
- ↑ * जिस समय 'सिडिशन बिल' पास हुआ था उस समय यह निबन्ध कलकत्तेके टाउन हाल में पढ़ा गया था।