और भरत के लिए राज्य मांग लिया। राम के वनवास जाने पर दशरथ का दुःख असह्य हो गया और वे मूर्छित हो गए। अयोध्या के राजमहल में शोक छा गया।
राम के वन-गमन के छठे दिन दशरथ की मृत्यु हो गई। तब उनके शरीर को तेल में रख सबने सम्मति करके मामा के घर से भरत को बुला भेजा, परन्तु भरत राम-वनवास और पिता की मृत्यु का दारुग समाचार सुनकर घबरा न जायें, इसलिए जो आदमी रथ लेकर उन्हें बुलाने गया, उसे समझा दिया गया कि भरत से यहां की सब बातें मत कहना। केवल पिता के रुग्ण होने की सूचना देना। पिता का रुग्ण होने का समाचार सुनकर भरत रथ पर चढ़कर तःकाल अयोध्या को चल पड़े।
मार्ग में भरत ने सूत से पूछा, "पिता जी अच्छे तो है? मुझे तो इधर बहुत दिनों से कुछ समाचार ही नहीं मिला। उन्हें रोग क्या है?"
सूत ने संक्षेप में उत्तर दिया, "हृदय-पीड़ा।"
"चिकिसा हो रही है न?"
"हां, परन्तु उसमे कुछ लाभ नहीं हुआ।"
खाते-पीते क्या हैं?"
"कुछ नहीं।"
"नींद तो आती है न?"
"निर्विघ्न।"
"कुछ आशा तो है?"
"भगवान की।"
"हृदय घबराता है, तेज हांको।"
"बहुत अच्छा।" कहकर सूत ने रथ तेज हांक दिया। भरत कुछ क्षण चिन्तित भाव में बैठे रहे। फिर सामने विस्तृत मार्ग देख कर पूछा, "अब और कितनी दूर है सूत?"
"बस, सामने जो यह बहुत-से पेड़ों का झुरमुट दीख रहा है, उसके उधर ही अयोध्या है।"
"जी चाहता है पंख लगाकर उड़ जाऊं और पिता जी के चरणों में सिर रख दूं। वे झटपट उठाकर मुझे छाती से लगा लेंगे। क्यों सूत! भैया और माता तो आंसुओं मे मुझे भिगो देंगे? बराबर वाले मुझे इतना हट्टा-कट्टा देखकर आश्चर्य करेंगे और लक्ष्मण मेरे ये मामा के देश के कपड़े-लत्ते देखकर बहुत ही हंसेंगे। पिता जी तो मुझे देखते ही चंट से अच्छे हो
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