पुत्र भरत तो नहीं हैं?"
"मैं दशरथपुत्र भरत हूं।"
"वही तो मैंने कहा। हाय, कुमार! बुरा हुआ।"
"क्या हुआ, कहिये, शीघ्र कहिए!"
"क्या कहूं, राम लक्ष्मण और सीता को लेकर वन को चले गए और महाराज ने उनके शोक में प्राण त्याग दिये।"
"क्या कहा? पिता जीॱॱॱ।" यह कहते-कहते भरत मूर्च्छित होकर गिर पड़े। पुजारी भयभीत होकर पुकारने लगा, "अरे, कोई आओ, ये भरत कुमार मूर्च्छित हो गए हैं।"
थोड़ी देर में भरत की मूर्च्छा दूर हुई। उन्होंने पुजारी से कहा, "अब मैं सावधान हूं। मैं अयोध्या की ओर उस भांति दौड़ा जा रहा था, जैसे प्यासा आदमी सूखी नदी की ओर दौड़ा जा रहा हो। बैठ जाइए और सब स्पष्ट कहिए।"
"सुनिए, महाराज ने ज्यों ही राम को राजतिलक देने की ठानी कि आपकी माता नेॱॱॱ।"
"ठहरिए, पुराने वर का स्मरण कराकर अपने पुत्र को राजा बनाने का हठ किया और पिता जी ने हृदय पर पत्थर रखकर बड़े भाई से कह दिया कि जाओ बेटे वन को और जब वे कमर में तीर बांधकर वन को चले, तो यह देखकर महाराज ने प्राण दे दिए। अब इन बातों को सुनने को रह गया मैं भाग्यहीन!"
इतना कहते-कहते भरत फिर मूर्च्छित हो गए। इसी समय राजवर्ग की स्त्रियां और सुमन्त ने मन्दिर में प्रवेश किया। सुमन्त आगे-आगे चलकर उन्हें बता रहा था, "इधर से आइए महारानी, हाय, जो महाराज गगनचुम्बी महलों में रहते थे, उनकी मूर्ति ही यहां रह गई है न कंचुकी है, न मंत्री। बटोही यहां से बिना रोक-टोक नमस्कार किए चले जाते हैं।"
सुमन्त के आगे बढ़ने पर उन्हें कोई व्यक्ति मूर्च्छित पड़ा दीखा। उन्होंने कहा, "अरे, यह कौन मूर्च्छित पड़ा है?"
पुजारी ने उत्तर दिया "कुमार भरत हैं।"
भरत का नाम सुनते ही रानी आगे बढ़ आयी और भरत को पहचानकर विलाप करने लगीं, "हाय-हाय, सचमुच यह तो कुमार भरत ही हैं।"
कोलाहल सुनकर भरत की संज्ञा लौटी। उन्होंने स्वत: कहा,"कौन? कौन है?"
सुमन्त ने बताया, "मैं हूं सुमन्त। कुमार! आपका स्वर तो महाराज जैसा ही है।"
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