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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/१४

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में उड़ा दूंगा अथवा आज्ञा होगी तो बांधकर चरणों में ला उपस्थित करूंगा।"

रावण ने उसे आलिंगन में भरकर कहा, "पुत्र! तुम मेरी एकमात्र आशा हो। अब मैं तुम्हें उस काल समर में नहीं भेजूंगा। वत्स! भाग्य मेरे विपरीत है, तुम आनन्द से प्रमोद वन' में विहार करो। मैं राम के बल को स्वयं ही देखूंगा।"

मेघनाद बोला, "हे, राजेन्द्र! राम जैसे तुच्छ नर से इतना भय क्यों? मुझ दास के रहते आप रण में जाएंगे, तो पृथ्वी के वीर हंसेंगे। देवराज इन्द्र उपहास करेगा। अग्नि रुष्ट हो जायेगी। मैने राम को दो बार पराजित करके छोड़ा है। अब इस बार उसे नष्ट ही कर दूंगा। देखू वह कैसे बच निकलता है।"

"पुत्र! मैंने महाबली भाई कुम्भकर्ण को असमय जगाकर भेजा था। देखो, उसका शरीर समुद्र के किनारे ऐसे पड़ा है, जैसे बिजली के गिरने से टूटी पर्वत की चट्टान।"

"पिता! मैं इस विद्रोही राम को अभी मारे डालता हूं।"

रावण कुछ देर पुत्र की वीर भावना पर सोचता रहा, फिर कहा, "अच्छा, वत्स! यदि ऐसी ही तुम्हारी इच्छा है, तो आज रात्रि जागरण कर निकुम्भिला यज्ञ कर लो। आओ, मैं तुम्हें सेनापति पद पर अभिषिक्त करता हूं। वीर सैनिको! यह अजेय इन्द्रजीत मेरा पुत्र और तुम्हारा युवराज समस्त राक्षस सैव्य का अधिपति होता है।"

राजपुरोहित ने आगे बढ़कर कहा, "कुमार! मैं सप्ततीर्थों के पवित्र जल से तुम्हारा अभिषेक करता हूं।"

जल छिड़ककर उपने मेघनाद की स्तुति की:

जिसके भीम धनुष की ध्वनि सुन सुरपति कम्पित होते।
जिसके अक्षय अग्निबाण छू अरिदल विचलित होते।
वीर शिरोमणि, कामिनि-रंजन, रावण-सूत विकराल।
सजा युद्ध के साज चला अब रावण-वीर विशाल।

तीन

अमरावती पुरी में देवराज इन्द्र की रात्रिसभा जुड़ी हुई थी। मणिमय छत्र पिर पर धारण कर इन्द्र इन्द्राणी सहित स्वर्णसिंहासन पर बैठे थे। किंकरियां चंवर डुला रही थीं। छहों राग और छत्तीस रागिनियां मूर्तिमती

उपस्थित थीं। अप्सराएं नाच रही थीं , गन्धर्वगण देवताओं को स्वर्णपात्रों

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