में सुधा बांट रहे थे। उसी समय अपनी प्रभा से दिशाओं को आलोकित करती हुई देवी महालक्ष्मी वहां आई। सब देवता तथा इन्द्र आसन छोड़कर उठ खड़े हुए और उन्हें स्वर्णपीठ पर आसन दिया!
इन्द्र ने हाथ जोड़कर पूछा, "वारीन्द्रनन्दिनी! आपके चरणों की इस विश्व में सब इच्छा करते हैं। जिसपर आप कृपा करती हैं, उनका जन्म सफल हो जाता है। आज आपने अनायास ही यहां पधारकर मुझ कृतार्य किया, सो किस पुण्य के फल से, कहिए?"
यह सुन लक्ष्मी मुसकराईं, फिर बोली, "देवराज! मैं चिरकाल से लंका में बंदिनी थी। राक्षसराज मुझे विविध रत्नों से पूजता था। अब वह अपने पाप-दोष से सवंश डूब रहा है; परन्तु जब तक वह जीवित है, मैं वहीं बन्दिनी रहूंगी। सो हे, देवराज! इस राक्षसपुरी से मेरा उद्धार करो।"
"माता! इस कार्य में मैं क्या उद्योग कर सकता हूं?"
"तुम्हारा चिर शत्रु मेघनाद ही अब एकमात्र वीर लंका में शेष है। दशानन ने उसे सेनापति पद पर अभिषिक्त किया है। कल वह दुरन्त वीर राम पर आक्रमण करेगा। वह अजेय राक्षसकुमार यदि निकुम्भिला यज्ञ पूर्ण कर लेगा, तो फिर राम का निस्तार नहीं है।"
"देवी! गरुड़ से नाग इतना नहीं डरते, जितना मेघनाद से। रावण का यह पुत्र रण में दुर्वार है। महासंहारक यह देवास्त्र वज्र भी उस महाबली ने परास्त कर दिया। माता! वह सदाशिव के वर से रणंजय हुआ है। आपकी आज्ञा हो तो मैं कैलास जाऊं?"
"देवराज! तुरन्त जाओ, उनसे कहो, वसुन्धरा सदा रोया करती है। अनन्त आकाश अब उसका भार नहीं सह सकता। इस बार राक्षसपति समूल नष्ट न हुआ, तो भवतल रसातल को चला जाएगा। उन्हें मेरी याद दिलाकर भी कहना कि ऐसा कौन पिता है, जो दुहिता को पतिगृह से दूर बन्दी रहने दे? यदि त्र्यम्बक न मिलें तो अम्बिका के चरणों में सब निवेदन करना।"
यह कहकर देवी महालक्ष्मी वहां से चली गईं। उनके जाने पर इन्द्र ने शची से कहा, "देवी! तुम भी मेरे साथ चलो। परिमल सुधा के साथ होने से पवन का दुगुना आदर होता है। प्रस्फुटित कमल के गुण से मृणाल की शोभा बढ़ती है।"
शची हंस दी, फिर बोली, "देवेन्द्र! जहां धूप वहां छांह। चलो, मैं चलूंगी।"
हिमालय के कैलास शिखर मानसरोवर पर शंकर का धवल हिमप्रासाद था। पर्वत घनश्याम तरुलता से वेष्टित थे। स्थान-स्थान पर झरनों
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