से झर-झर जल बह रहा था। उमा एक स्वच्छ स्फटिक शिला पर स्वर्णासन बिछाकर बैठी थी। विजया चंवर डुला रही थी। जया राजछत्र लिए थी। इन्द्र और शची वहीं पहुंच प्रणाम कर हाथ बांध खड़े हो गए।
अम्बिका ने उन्हें वहां उपस्थित देख पूछा, "देवराज! अपनी कुशल कहो। किस मनोरथ से तुम दोनों आज यहां कैलास में आये हो?"
इन्द्र ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, 'जगत् माता! आप तो संसार का सब समाचार जानती हैं। लंकापति रावण ने आज अजेय मे बनाद को सेनापति पद पर अभिषिक्त किया है। कल प्रातःकाल निकुम्भिला यज्ञ में वह वर प्राप्त कर रण में प्रवेश करेगा। राजलक्ष्मी ने मुझे मेरे धाम में आकर यह समाचार सुनाया है। वसुन्धरा और शेष अब क्लान्त हो गए हैं, भार नहीं सह सकते। महालक्ष्मी अब कनकलंका त्यागने को चंचल हो गई हैं। इसलिए उन्होंने मुझ दास को आपके चरणों में यह निवेदन करने भेजा है कि किसी भांति कल राम की रक्षा तथा उस दुरन्त राक्षस की मृत्यु होनी चाहिए।"
अम्बिका ने हंसकर कहा, "रावण तो शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। तापमेन्द्र उपसे परम् सन्तुष्ट हैं। इस समय वह समाधिस्थ हैं, इसीलिए लंका में इतनी दुर्दशा हो रही है।"
"किन्तु माता! राक्षसराज परम् अधर्मी है। राम ने पिता की आज्ञा से सुख-भोग त्याग कानन-वास किया है। दुष्ट मायावी रावण ने उनकी परम् साध्वी पत्नी को छल से हरण कर लिया। वह पापी परधन और परस्त्री के लोभ में सदा डूबा रहता है, फिर उस मूढ़ पर आपकी इतनी अनुकम्पा क्यों रहती है?"
शची ने निवेदन किया, "माता! वैदेही के दुःख को देखकर किसका हृदय विदीर्ण नहीं होता? वह सती अशोक वन में पिंजर-बद्ध पक्षी की भांति रहती है। उसका दु:ख आपको छोड़ और कौन दूर कर सकता?"
अम्बिका फिर हंस दी। बोलीं, "मेघनाद ने तुम्हारे पति को रण में पराजित किया था। इसी से तुम रावण से द्वेष करती हो; परन्तु तुम्हारी इस इच्छा को पूर्ण करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। राक्षस कुल के रक्षक तो त्र्यम्बक हैं। वे आज वृषभध्वज योग में मग्न हैं। वे योगासन कूट पर समाधिस्थ हैं। वहां गरुड़ की भी गति नहीं, तुम उनके पास कैसे जाओगे?"
इन्द्र ने उत्तर दिया, "जगन्माता! आपके बिना और किसी की सामर्थ्य है, जो उनके पास जाए। अब आप ही राक्षस कुल का नाश करके वसुधा का भार हलका कीजिए।"
सहसा शंख, घंटा और मंगलाचरण की ध्वनि से कैलासपुरी गन्धा-
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