सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

मोद से भर गई। उमा का कनक सिंहासन हिल उठा। यह देख अम्बिका ने सखी से जिज्ञासा की, "अरी, विधुमुखी! असमय में यह कौन मेरी पूजा कर रहा है?"

सखी ने हंसकर उत्तर दिया "दाशरथी राम जलपूर्ण घट को सिंदूर से अंकित कर आपके पद-पंकज में नीलो पलांजलि से पूजा अर्पण कर रहे हैं। अभये! उन्हें अभय दान दीजिए। रघुकुलश्रेष्ठ राम आपके परम भक्त हैं।"

"विजये! तुम देव-दम्पति का यथाविधि आतिथ्य करो। मैं विकट शिखर पर योगासन में आसीन धूर्जटि के पास जाती हूं, देखूं।"

यह कह उमा रत्न महल के भीतरी भाग में स्वर्णपीठ पर आ बैठी और विचारने लगीं कि किस विधि से मैं महेश से मिलूं? क्या मदन-वधू रति की स्मरण करूं! यही ठीक होगा। उन्होंने रति को स्मरण किया। रति उषा की किरण की भांति साष्टांग दण्डवत् कर आ उपस्थित हुई। उमा बोलीं, 'अरी मदन-मन-मोहिनी! योगेन्द्र योगासन पर समाधिस्थ बैठे हैं। कह, मैं कैसे उनकी समाधि भंग करूं?"

रति ने निवेदन किया, "देवि! आप मोहिनी मूर्ति धारण कीजिए। आज्ञा हो तो नाना प्रकार के आभरणों से आपको ऐसे सजा दूं कि पिनाकी ऐसे विवश हो जाएं, जैसे वसन्त में ऋतुपति वनस्थली की कुसुम-कुन्तला को देखकर मोहित हो जाता है।"

अम्बिका हंस पड़ीं। उन्होंने कहा, ऐसा ही कर।"

आज्ञा पाकर रति ने प्रभावमात्र से उमा को रत्नाभरणों से विभूषित कर दिया और दर्पण सामने करके बोली, "देखिए।"

दर्पण में अपनी छवि को देखकर उमा स्तम्भित रह गईं, "बहुत ठीक हुआ। अब अपने पति को भी बुला।"

"जो आज्ञा!" रति ने ध्यान किया। कुछ क्षण बाद ही मदन फूलों के धनुष-बाण लिए प्रादुर्भूत हो गया।

अम्बिका बोलीं, मन्मथ! तुम शीघ्र मेरे साथ वहां चलो, जहां योगीपति ध्यानमग्न हैं।"

मदन यह सुन कुछ भयभीत हुआ, फिर कहा, "देवी! मुझ दास को ऐसी आज्ञा मत दीजिए। मुझे वह दिन याद है, जब महेश्वर के भालस्थित अग्नि ने सहसा वज्रपात की भांति मुझ भस्म कर दिया था। उस समय मैंने आर्तनाद करके इन्द्र, चन्द्र, पवन, सूर्य सबको पुकारा; परन्तु कोई भी नहीं आया। तब से मैं भवेश के स्मरणमात्र से मग्नोद्यम हो जाता हूं।"

अम्बिका ने हंसते हुए कहा, "अनंग! अब तुम भय को त्याग निःशंक

१५