पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/१८

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मेरे साथ चलो। उस समय जिस अग्नि ने तुम्हें जलाया था, वह आज तुम्हारी ऐसी पूजा करेगी, जैसे प्राणनाशकारी विष रसायन विधि द्वारा औषधि बनकर प्राणों की रक्षा करता है।"

मदन ने प्रणाम करके उत्तर दिया, "अभये! जब आप अभयदान देती हैं, तब किसे त्रिभुवन में भय है, परन्तु शुभे, आप यदि इस मोहिनी वेश में मंदिर से बाहर जाएंगी, तो इस रूप-माधुरी को देखकर सारा जगत् मत्त हो जाएगा, इसलिए आप अपने अंगों को माया के आवरण में ढक लीजिए।"

"ऐसा ही सही; चलो।" अम्बिका ने माया से अपने शृगार को छिपा लिया और दोनों चल दिए।

उच्च हिमकूट पर जटाधारी शिव ध्यानस्थ बैठे हुए थे। रात्रि का समय था। मदनसहित उमा बादलों को छिन्न-भिन्न करती वहां आ पहुंची, अम्बिका ने हंसकर मदन से कहा, देव! अब तुम अपने पुष्पबाण छोड़ो।"

कामदेव ने घुटने टेककर बाण छोड़े। बाणों के प्रभाव से असमाधिस्थ होकर शंकर ने चौंककर कहा, "अरे, मन चंचल क्यों हो रहा है?" फिर नेत्र खोलकर इधर-उधर देखने लगे। मदन उमा के चरणों में छिप गया। शंकर ने उमा का मोहिनी रूप देखा, तो बोले, "अरे, प्रिये! तुस इस निर्जन वनस्थली में अकेले कैसे आई हो?"

अम्बिका हंसती हुई आगे बढ़ आईं। उन्होंने कटाक्ष फेंककर उत्तर दिया "योगेन्द्र! आप मुझ दासी को भूलकर विरल बन में वास करते हैं, इसीलिए श्रीचरणों के दर्शनों की आशा से यहां आई हूं। क्या पत्नी का सहचरी को साथ लेकर पति के पास आना अनुचित है ?"

"आओ, प्रिये! यहां बैठो।" कहकर उन्होंने उमा को व्याघ्रचर्म पर स्थान दिया। वसन्त ऋतु का प्रादुर्भाव होने लगा, फूल खिलने लगे। मकरन्द लोभी भौंरे गूंजने लगे, कोयल गाने लगी। मलय वायु फैल गई। मदन ने ताककर फिर कुसुम-शर छोड़ा। इससे शिव के मस्तक की अग्नि अन्तर्धान हो गई। महादेव मोहन रूप धारण करके हंसने लगे, फिर बोले, "प्रिये! तुम्हारे मन की बात जानता हूं। देवराज दम्पति तुम्हारे पास किस इच्छा से आए हैं, वह भी जानता हूं। राक्षसराज रावण मेरा भक्त है; परन्तु वह दुष्ट अब अपने कुकर्मो से अपनी अवनति कर रहा है, फिर भी उसकी दुर्दशा का स्मरण कर मेरा हृदय विदीर्ण होता है; परन्तु देव हो या दानव, कर्म की गति को कोई नहीं रोक सकता।"

देवाधिदेव! आज दुर्जय मेघनाद निकुम्भला यज्ञ पूर्ण कर प्रभात ही में राम का संहार करेगा।"

राज्याभिषेक—१
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