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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/२४

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हनुमान सुलोचना की दूती को साथ लेकर राम के शिविर की ओर चले। राम व्याघ्रचर्म पर बैठे थे, सामने धनुष लिए लक्ष्मण खड़े थे, बगल में विभीषण और अन्य वीर थे। विविध दिव्य शस्त्र चमक रहे थे। धूपदान में धूप जल रहा था। सहसा सैन्यकोलाहल सुन विभीषण ने भयभीत हो कहा, "प्रभु! यह कैसा प्रकाश है? क्या असमय ही उषा का उदय हो गया?"

राम ने आश्चर्य से देखकर कहा, "यह तो कोई भैरवी-सी वामा या दानवी चली आ रही है। यह लंका मायापुरी है और तुम्हारा ज्येष्ठ भ्राता कामरूप है। मित्र! भली भांति देखो, यह क्या रहस्य है? इस विपत्तिकाल में इस दुर्बल सैन्य की रक्षा इस राक्षसपुरी में तुम्हीं कर सकते हो।"

हनुमान दूती सहित वहां आ पहुंचे और हाथ जोड़कर बोले, "प्रभु जब मैं अलंध्य सागर को लांघकर लंका में आया था, तब भयंकर प्रचंडा कर में कपाल और खड्ग लिए मुण्डमाल पहने वहां फिरती मैंने देखी थी, फिर मैंने मन्दोदरी आदि शशिकला समान सभी अनिन्द्य राक्षस कुलवधुओं को घर-घर जाकर देखा था। सब के अंत में अशोक वन में शोकसंप्त माता जानकी के भी दर्शन किए थे, किन्तु जो तेजमूर्ति रूप-उजागरी दैत्यबाला आज मैंने देखी, वह तो त्रिभुवन में कहीं किसी ने न देखी होगी। हे नाथ! वह मेघनाद धन्य है, जिसने मेघरूपी पाश में इस सौदामिनी को बांध रखा है। वही दैत्यबाला सुलोचना सिंहिनी की भांति सौ वीरांगनाओं सहित शिविर के द्वार पर उपस्थित है। उसकी प्रार्थना चरणों में निवेदन करने यह दूती आई है"

दूती ने आगे बढ़ हाथ जोड़कर निवेदन किया, "मैं राघवेन्द्र और सब गुरुजनों के पदों में प्रणाम करती हूं। मेरा नाम नरमुण्डमालिनी है। मैं वीरेन्द्र केसरी इन्द्रजीत की पत्नी दैत्यबाला सुलोचना की दासी हूं।"

राम ने उसे आशीष देकर कहा, "दैत्यबाले! तुम किसलिए मेरे पास आई हो? तुम्हारी सती स्वामिनी को मैं किस प्रकार संतुष्ट कर सकता हूं?"

"हे, वीर! आप बाहर आकर हम सबसे युद्ध कीजिए अथवा मार्ग दीजिए। सती सुलोचना पतिपद पूजने लंका में जाना चाहती हैं। आपने बाहुबल से अनेक राक्षसवीरों का वध किया है, अब राक्षसवधू आपसे युद्ध करना चाहती हैं। हे, सीतापति! अब उनसे युद्ध होने दो। हम एक सौ हैं, आप जिसे कहेंगे, वह अकेली युद्ध करेगी। चाहे धनुष-बाण लो, चाहे ढालतलवार, मल्लयुद्ध में भी हमें आपत्ति नहीं। जैसी भी रुचि हो, अब विलम्ब का काम नहीं।" यह कहकर वह सिर नीचा किए खड़ी हो गई।

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