सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

सात

उषा का उदय हुआ। इन्द्रजीत के शयनागार में मधुर भैरवी-नाद हो रहा था। भांति-भांति के पक्षी कलरव कर रहे थे। वन्दीगण विविध वाद्य बजाकर गान कर रहे थे। मेघनाद की आंख खुली, देखा सुलोचना अभी सो रही है। उसने सोयी हुई पत्नी का हाथ पकड़कर मृदुस्वर में कहा, "उठो, हेमवती! उषा की प्रतिमूर्ति देखो! प्राची दिशा उषा के उदय से कैसी दीप्तिमान हो रही है। उठकर देखो तो प्रिये! ये वनकुसुम तुम्हारी शोभा को हरणकर झूम-झूमकर डालों पर हंस रहे हैं।"

प्रियतम के प्रिय वचन सुन सुलोचना जाग पड़ी। उसने लज्जा से वस्त्रों को ठीक करके हंसकर कहा, "आज इतनी जल्दी प्रभात हो गया। नाथ! वह सुखरानि इतनी शीघ्र विलीन हो गई?"

"प्रिये! तुम मेरे भाग्यवृक्ष की उत्तम फल हो। तुम मेरे प्राणरूपी सूर्यकांतमणि के लिए तेजोरश्मिरूप हो। अब चलो, विलम्ब का समय नहीं। जननी के पद में प्रणाम कर वैश्वानर की विधिवत् पूजाकर कठिन संग्राम में जाऊंगा। प्रिये! आज मैं प्रबल बैरी का समर में हनन करूंगा।"

उसने त्रिजटा दासी को बुलाकर कहा, "अरी, त्रिजटे! देख तो माता क्या कर रही हैं? उनसे निवेदन कर कि पुत्र व वधू उनकी चरण वन्दना के लिए उपस्थित होना चाहते हैं।

त्रिजटा साष्टांग प्रणाम करके बोली, "युवराज! महिषी मन्दोदरी शिव मन्दिर में जागरण और उपवास करके आपकी मंगलकामना कर स्वयं ही देवप्रसाद लिए यहां आ पहुंची हैं।"

मन्दोदरी ने वहां आकर हर्ष से दोनों के मस्तक चूमे। नेत्रों से प्रेम की अश्रुधारा बह चली। वह बोली, "वीर पुत्र और पुत्री! चिरंजीव रहो।"

मेघनाद ने प्रणाम करके कहा, "माता! मुझ दास को आशीर्वाद दो। मैं आज पामर भ्रातृघाती राम का वध करूंगा। लंका को निर्विघ्न कर शत्रु को बांध लाऊंगा और उसके कटक को अतल सागर के जल में डूबो दूंगा।"

"पुत्र! तू मेरे हृदय-आकाश का पूर्णश शि है। तुझे भेजकर इस अंधकार में कैसे रहूं! अरे, देवबलयुक्त राम, दुरंत लक्ष्मण तथा दयाशून्य विभीषण विपक्ष में हैं। जैसे क्षुधा से व्याकुल व्याघ्र अपने शिशु को खा जाता है, वैसे ही यह राज्यलोलुप राक्षस अपने वंश का नाश कर रहा है।"

मेघनाद ने हंसकर कहा, "मां! तुम उन दोनों भिक्षुकों से क्यों डरती

राज्याभिषेक—३
३३