पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/५७

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राक्षस पत्नियां हाहाकार करके रो उठीं। वे रोती हुई स्वर्णपात्र को भर- भरकर चन्दन, अगर, कस्तूरी, घृत, केसर, पुष्प चिता पर बिखेरने लगीं। ढफ, ढोल, मृदंग, करताल, झांझ, शंख बज उठे।

रावण श्वेत वस्त्र धारणकर मन्त्रियों सहित आगे आया। आकाश में इन्द्र, कार्तिकेय, चित्ररथ, यम आदि देव, गन्धर्व, अप्सराएं, किन्नर भी आए। उनके पीछे दिव्य बाजे बज रहे थे।

सुलोचना ने तीर्थोदक का सिंचन करके आभूषण उतारकर सखियों को दिए। उसने कहा, "अरी, प्यारी सहचरियों ! आज अचानक मेरी जीवन लीला समाप्त होती है। तुम सब दैत्य देश में लौट जाना। अरी वासंती! पिता से सब कुछ कह देना और माता से कहना कि जो भाग्य में लिखा था, वह हो गया। उन्होंने जिनके हाथों में मुझे दिया था, उन्ही के साथ जा रही हूं।"

ब्राह्मणों ने वेदपाठ आरम्भ किया। मंगलवाद्य बजने लगा और स्त्रियां गीत गाने लगीं। राक्षस तीक्ष्ण बाणों से पशुओं को मार-मारकर चिता के चारों ओर रखने लगे।

शोकाकुल रावण ने आगे बढ़कर कहा, "अरे, मेघनाद! मैंने आशा की थी कि तुझे राज्यभार दे महायात्रा करूंगा; परन्तु विधाता ने कुछ और ही सोच रखा था। स्वर्ण सिंहासन की जगह पूर्वजन्म के फल से आज तुझे वधू सहित इस आसन पर बैठा देख रहा हूं। हाय, क्या मैंने इसीलिए शिव की आराधना की थी? हां, पुत्र! हां, वीर श्रेष्ठ!"

यह कह वह सिर धुनकर रोने लगा। चिता में अग्नि दे दी गई। चिता जल उठी और आग्नेय रथ में स्वर्ण-आसन पर दिव्यमूर्ति इन्द्रजीत सुलोचना सहित स्वर्ग को प्रस्थान करते दीख पड़े। देवगणों ने पुष्पवर्षा की। गगनभेदी जयजयकार हुआ। अगले दिन सहस्र घड़ों की दुग्धधार से चिता बुझाकर भस्मी सागर में विसजित कर दी गई।

पन्द्रह

राम-रावण-युद्ध पाल्गुन मास में आरम्भ होकर चौरासी दिन तक चला, जो रावण-वध के दिन वैशाख कृष्ण अमावस को समाप्त हुआ। इस घोर संग्राम में रावण परिवार के प्रमुख परिजन कुम्भकर्ण, वीरवाहन, मेघनाद क्रमशः युद्ध में मारे गए। कुम्भकर्ण के शोक और परिजनों की यथाविधि अन्त्येष्टि त्रिया के लिए सात दिन तक युद्ध नहीं हुआ। आठवें दिन स्वयं रावण ने राम के साथ निर्णायक युद्ध किया। अन्त में इस

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