"अहा, प्रिये सीते! यही दशा तो मेरी थी! मलयानिल मेरे शरीर में बर्छियां मारता था। मैं वृक्षों से, पर्वतों से, नदियों से, पक्षियों और हिस्र जन्तुओं से भी तुम्हारा पता पूछता हुआ एक वन से दूसरे वन में, दूसरे वन से तीसरे वन में भटकता फिरता था। हाय, वे दुर्दिन भी कैसे असह्य थे!"
"मैं तो अब भी उन दिनों को याद करके भय से कांप उठती हूं।"
"अब भय क्या है प्रिये! अब तो तुम मेरे निकट हो। बीती बातों को अब भूल जाओ।"
"चाहकर भी नहीं भूल पाती हूं। न जाने क्यों, मेरा मन उन्हीं दुर्दिनों की ओर दौड़ जाता है। आर्यपुत्र घड़ी-भर के लिए भी मेरी आंखों ओट होते हैं, तो मैं व्याकुल हो जाती हूं।"
"भीरु! यह शंका अपने मन से दूर करो। अरे, रोने लगीं। तुम्हारी आंखें डबडबा आईं लाओ, मैं तुम्हारे आंसू पोंछ दूं।"
"संब माताएं और गुरुजन भी तो राजधानी से चले गए। आज पिता ने भी मुझसे मुंह मोड़ लिया। अब तो केवल आप ही मेरे प्राणाधार रह गए। न जाने कैसा सूना-सूना लग रहा है!"
"धीरज धरो जनकनन्दिनी! गुरुजन हमें छोड़ थोड़े ही सकते हैं; पर कर्तव्यवश तो सब कार्य करने ही पड़ते हैं।"
"आर्यपुत्र मैं जानती हूं, पर प्रिय बन्धुओं का बिछोह मुझसे सहा नहीं जाता।"
"प्रिये! यही हृदय के मर्म को छेदने वाले संसार के झंझट हैं, जिनसे घबराकर लोग वन की शरण लेते हैं।"
"अच्छा, कहिए, शुभ समाचार सुनाने पर आप किसी को क्या देते हैं?"
"दान और भेंट तो पात्र को देखकर ही दिया जाता है। तुम्हारा शुभ समाचार कैसा है प्रिये!"
"बहुत ही शुभ है।"
"तो उसके लिए यह प्राण और शरीर भी दिया जा सकता है।"
"इसे तो महाराज कई बार इस दासी को दे चुके हैं। अब और कितनी बार देंगे?"
"प्रिये! भिखारी राम के पास और क्या है?"
"वाह महाराज! आप अयोध्या के इतने बड़े प्रतापी महाराज होकर भी अभी भिखारी बने हैं!"
"देवी! राजा का अपना कुछ भी नहीं होता। जो कुछ है वह प्रजा
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