पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/६८

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13 "तुम तो कह ही चुको हो कि राजा को विश्राम कहां? भाई लक्ष्मण, कल भोर होते ही रथ जोतकर देवी को गंगातीर के ऋषियों का दर्शन' करा लाओ। लक्ष्मण ने उत्तर दिया, "जो आज्ञा महाराज !" "महाराज ! मैं ऋषियों के पुनीत आश्रमों में राजसी आडम्बर से नहीं जाऊंगी। सेना-परिच्छद की कुछ आवश्यकता नहीं है । अकेले देवर जी ही ठीक हैं।" 'यही युक्तियुक्त भी है । ऐसा ही होगा। अच्छा प्रिये ! अब तुम शयनकक्ष में जाकर विश्राम करो। मैं थोड़ा राजकाज निबटा आऊं। और लक्ष्मण ! तुम देवी की रुचि के अनुकूल ही व्यवस्था करना । जाओ, रथ तैयार करने की आज्ञा दे आओ।" 1 अठारह सीता के पास से लौटकर राम अपने कक्ष में आ बैठे। इस समय उनके मन में सीता रमी हुई थीं। वे सोच रहे थे कि सीता प्राणों से प्रिय है, ये प्रिय भाव उसने अपने गुणों से और बढ़ा लिए हैं। भाग्य ही से ऐसी पत्नी मिली है और भाग्य ही से कोसलराज को ऐसी महिषी। अब उसके गर्भ से कोसल राजवंश को वंशधर अधिकारी का जन्म होगा, जिससे मेरा और मेरे पूर्वजों का यश बढ़ेगा। उनकी इस प्रिय विचारधारा में बाधा पड़ी। एक प्रतिहारी ने आकर उन्हें अभिवादन किया और चर दुर्मुख के आने की सूचना दी। राम ने कहा, "वह राजकाज में नियुक्त है, उसे यहीं भेज दो।" ‘जो आज्ञा महाराज !" कह प्रतिहारी चला गया। कुछ क्षण वाद दुर्मुख ने आकर अभिवादन किया, “महाराज की जय हो ! कहो, भाई ! नगर के क्या समाचार हैं ?" र-निवासी सुखी हैं । वे महाराज की जय-जयकार मनाते वे क्या कहते हैं, विस्तार से कहो।" कहते हैं, महाराज ने अपने गुणों से स्वर्गवासी महाराज दशरथ को "यह तो प्रशंसा हुई। कुछ हमारी बुराइयां भी बताओ।" सिवनगर- भुलवा दिया।' "महाराज !"