"कहो, निर्भय कहो।"
"कैसे कहूं महाराज!"
"कहो, भाई! तुम्हारी राजसेवा यही है कि जो कुछ प्रजा में सुनो, सच-सच अपने राजा से कहो।" यह सुन दुर्मुख सिर नीचा करके रोने लगा।
राम बोले, "अरे, तुम रोते हो, ऐसा क्या समाचार है?"
"महाराज! मुझे बन्दी बना लीजिए। मैं चर का काम नहीं कर सकता।"
"कहो, सब कुछ निर्भय कहो।"
'नगर का धोबी है न?"
"धोबी, उसे क्या दुःख है?"
"उसकी स्त्री बिना उससे कहे पीहर चली गई थी।"
"उसे पति की आज्ञा लेनी चाहिए थी।"
"महाराज! जब वह लौटकर दूसरे दिन आई, तो धोबी ने उसे बहुत पीटा।"
"बड़ा बुरा किया। स्त्री को पीटना ॱ ॱ।"
"और कहा ॱ ॱ।"
"क्या कहा?"
"महाराज कैसे कहूं?"
"कहो, क्या कहा?"
"कहा, क्या मुझे भी राम समझ लिया है कि जिसने राक्षस के घर में रही स्त्री को घर में रख लिया?"
"आह, यह कहा?"
"महाराज! दास का अपराध क्षमा हो।"
"तुम्हारा दोष नहीं है । अच्छा, तुम जाओ।"
चर दुर्मुख के चले जाने पर राम गहरे विषाद में डूब गए। उन्होंने मन-ही-मन कहा, 'अरे, हृदय! तू फट जा! साध्वी सीता अब जन-जन की आलोचना की वस्तु हो गई। अरे, अयोध्यावासियो! मैंने तो सदा तुम्हारी मनचाही की, कभी धर्म न छोड़ा। अब तुम साध्वी सीता को मुझसे अलग किया चाहते हो? मेरी पसलियां तोड़ लो, मेरी नस-नस खींच लो, पर मेरी सती सीता को, महाभागी जनक दुलारी को अयोध्या की राजलक्ष्मी को मुझसे दूर न करो। अरे, तुम सीता को मुझसे अधिक कहां जानते हो? अथवा मुझे ही नीच समझते हो? नही, मैंने सदा अपनी बलि दी और अब सबसे बड़ी बलि दूंगा। प्रजा के लिए गर्भवती सीता को त्याग
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