पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/७०

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, - - दूंगा हाय, वह राजप्रासाद में मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी। प्रात:काल वह उमंग में भरी गंगातीर जायेगी, पर फिर वहां से लौटकर न आएगी। सीते ! अरी, जनक की दुलारी ! तेरा भाग्य कैसा है ? पापी राम की स्त्री बनने का फल पा। हाय रे, राजधर्म ! अरे, हृदय ! पत्थर का बन । मैं प्रजा का अपवाद नहीं सुन सकता। अच्छा, मैंने अपनी प्राणाधिक निरपराध सीता को त्यागा, जिसे ढूंढ़ते हुए लंका तक गया, समुद्र पर पुल बांधा और जिसके लिए रावण को मारा। राजा ! राजा ! यह राजपद सोने की बेड़ी है । यह सिंहासन विष का भरा प्याला है। राजा एक ऊंचे पहाड़ की चट्टान है, जिसकी ऊंचाई से लोग डाह करते हैं, जो गर्मी में अकेला तपता है और जाड़ों में बर्फ में ठिठुरता है। अब समझा, राजा बनने के लिए मनुष्य की आत्मा नहीं, राक्षस की आत्मा चाहिए। उन्होंने द्वारपाल को पुकारकर लक्ष्मण को बुला भेजा। लक्ष्मण आकर उनके समक्ष खड़े हुए। आहट पाकर राम ने आंख उठाकर उन्हें देखा और फूट-फूटकर रोने लगे। लक्ष्मण ने कहा, "अरे, किसने महाराज को दुःखित किया ? सेवक के रहते कौन महाराज को दु:खी कर गया ? देव ! गन्धर्व, राक्षस और मनुष्य जो अपराधी होगा, उसे मैं जीता नहीं छोड़गा। अरे, महाराज मूच्छित हो गए ? दौड़ो !" परन्तु राम शीघ्र ही होश में आ गए। बोले, "नहीं, भैया ! मैं अच्छा हूं। लक्ष्मण ! अधीर मत होना।" "महाराजा क्या कह रहे हैं ?" "हां, ठीक है । तनिक सहारा देकर बिठा दो भाई ! तुम क्या कहते हो लक्ष्मण ! राजा न किसी का भाई, न पति, क्यों?" "क्यों महाराज !" "भ्राता लक्ष्मण ! तुम मुझे सदा महाराज ही कहते हो। भैया नहीं कहते।" "आप महाराज तो हैं ही।" "अच्छी बात है। तो लक्ष्मण ! एक राजाज्ञा है।" "कौन-सी आज्ञा?" "बिना विलम्ब पालन करना होगा।" "जो आज्ञा महाराज !". "सुनो।' "कहिए।" "कल सूरज निकलने से पहले देवी सीता को।" ६८ 6 64 60