पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/७१

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6 1 14 64 "वन ले जाना होगा?" "हां, गंगा के उस पार ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में...।" "यह आज्ञा तो सुन चुका हूं महाराज !" "वह राजाज्ञा नहीं थी लक्ष्मण ! वह तो पत्नी की विनोद-इच्छा पति ने पूरी की थी।" "और यह ?" "सुनो।" "कहिए।" "गंगा के उस पार..." भगवान वाल्मीकि के आश्रम में...।" "नहीं-नहीं। आश्रम के पास, देवी सीत्ता को छोड़ आओ।" "छोड़ आऊं?" "हां।" "क्यों महाराज !" 'यह राजाज्ञा है।" "महाराज !" "अब कुछ मत पूछो लक्ष्मण !" "क्या महाराज ने देवी सीता को त्याग दिया?" 14 1 "हां।" "उनका अपराध ?" "यह न पूछो।" "महाराज ! आप गर्भवती महारानी को त्याग रहे हैं ?" "मैं आज्ञा दे चुका लक्ष्मण !" 'दुहाई महाराज की ! मैं विद्रोह करूंगा।" राजाज्ञा हो चुकी, तुम्हें इसका पालन करना होगा।" "महाराज ! मुझे मार डालिए।" लक्ष्मण ! राजाज्ञा का पालन करो।" ( 44 "महाराज !" "जाओ भ्राता सूरज निकलने से पहले। समझ गए न।" लक्ष्मण ने छाती में धूंसा मारकर चीखकर कहा, "सूरज निकलने से पहले मैं मर जाऊं तो अच्छा।" लक्ष्मण के आंसुओं का वेग उमड़ पड़ा और वे आंखें पोंछते वहां से चले गए। अगले दिन प्रातः उषा का उदय होने लगा। राम अपनी शय्या पर अधोमुख लेटे हुए थे। सीता उनकी बांह पर सिर रखकर सो रही थीं।