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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/७२

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सीता के उज्ज्वल मुख को निहारकर राम सोचने लगे, जिस देवी को अग्नि ने शुद्ध किया और जिसके गर्भ में पवित्र रघुकुल का उत्तराधिकारी है, उसे मैं एक नगण्य प्रजाजन के अपवाद से त्याग रहा हूं। हाय, पर-मन्दिर वास का दूषण मैथिली के भाल से टल नहीं सका। अग्निपरीक्षा होने पर भी प्रवाद नहीं गया। अब मैं भाग्यहीन क्या करूं अथवा अपना यह अभिशप्त जीवन त्याग दूं? किन्तु मैंने, तो जन-मन-अनुरंजन का व्रत ग्रहण किया है। व्रतपालन करने में ही पितृवर ने प्राण दिए। मैं राम उनका पुत्र क्या ऐसा अधम हूं कि व्रतभंग करूंगा? अरे, अभी ही तो भगवान वसिष्ठ ने संदेश भेजा है। अहा, क्या मेरे कारण यह हमारा पवित्र इक्ष्वाकु कुल दूषित होगा? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकेगा। हां, मैथिली! अयोनिजा! निष्पाप भूमिकुमारी! अपने जन्म से संसार को प्रसन्न करने वाली! विदेह जनक की नेत्रज्योति! भगवती अरुन्धती और वसिष्ठ द्वारा प्रशंसित चरित्र! हा राम की प्राणप्रिया! अरी, महावन की संगिनी! सखी! प्राणाधिक प्रिया! मृदु भाषिणी! तेरा ऐसा भाग्य! अरी, तूने संसार को पवित्र किया, तो भी मनुष्य तेरे प्रति अपवित्र बात कहते हैं? अरी, समाज को सनाथ करने वाली! मुझ अयोग्य पति के रहते तू आज अनाथ होने वाली है। हाय-हाय, यह निष्पाप तो सुख से मेरी बांह का सहारा लिए सो रही है। यह नहीं जानती, मैं क्रूरकर्मा पति हूं। अस्पृश्य हूं, तो क्यों अपने स्पर्श से इस पवित्रात्मा को अपवित्र करूं? उन्होंने धीरे से बांह सीता के सिर के नीचे से निकाल ली और उठ खड़े हुए। बाहर आकर सेवक को आवाज दी।

दुर्मुख आकर उपस्थित हुआ और प्रणाम करके बोला, "महाराज की जय हो! आर्य लक्ष्मण की आज्ञा से मैं राजाज्ञा पालने के लिए उपस्थित हूं।

परन्तु राम ने उसकी ओर नहीं देखा। वह अभी भी अपनी विचारधारा से द्वन्द्व कर रहे थे, 'हाय, जीवलोक पलट गया, राम का जन्म लेने प्रयोजन भी पूरा हो गया। संसार विदग्ध वन के समान सूना हो गया, संसार में कुछ सार न रहा। हा, माता अरुन्धती! हा, भगवान वसिष्ठ! हा, मुनि विश्वामित्र! हा, अग्निदेव! हा, पिता जनक! हा, पिता दशरथ! हा, माता! हा, उपकारी मित्र लंकेश विभीषण! हा, प्रिय सखा सुग्रीव! हा, मारुति! हा, त्रिजटे! इस वंचक अधम राम ने तुम सबको ठग लिया अथवा अब यह राम तुम्हें मुंह दिखाने योग्य न रहा। हा-हा-हा-हा, अरी, भोली सीते! तू विश्वास करके मेरे अंक में निश्चिन्त सो गई, सो मैं वंचक निर्दय तुझे चुपचाप सोती छोड़कर चोर की भांति

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