पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/७३

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बाहर निकल आया। भला कौन' पति. विश्व में ऐसा निर्दयी होगा, जो आसन्नप्रसवा-निष्पाप पत्नी को वनचरों के बीच छोड़ दे ? हा-हा-हा।' दुर्मुख ने फिर निवेदन किया, "महाराज ! सेवक राजाज्ञा की बाट जोह रहा है।" अब राम सचेत हुए। उन्होंने कहा, "जा, भद्र ! राजाज्ञा पालन कर, राजाज्ञा हो चुकी। हा, देवी सीते ! तुम कैसे जीवित रहोगी ? भग- वती वसुन्धरे ! अपनी पुत्री की रखवाली करना । तुम्हीं ने जनक और रघुकुल की वंश-उजागरी सीता को जन्म दिया।" इसी पीड़ा से विदग्ध राम व्याकुल भाव से वहां से चल दिए। सीता ने जागकर देखा, राम शय्या पर नहीं हैं। उसने उठकर कहा, "सौम्य आर्यपुत्र ! कहां हो ? हा, धिक-धिक ! दुःस्वप्न के धोखे में मैं आर्यपुत्र का नाम लेकर चिल्ला उठी ! अरे, सचमुच ही मुझ अकेली को सोती छोड़कर आर्यपुत्र चले ही गए। यह राजकाज भी व्यसन है। इस बार यदि उन्हें देखकर अपने वश में रह सकी, तो अवश्य कोप करूंगी।" सीता ने दासी को आवाज दी। दुर्मुख ने उपस्थित होकर कहा, "वह रे वक है महारानी ! राज- महिषी की जय हो ! आर्य लक्ष्मण प्रार्थना करते हैं कि रथ प्रस्तुत है, सो देवी चलकर उस पर चढ़ें।" "अच्छा, भद्र ! ठहर, गर्मभार से मैं शीघ्र नहीं चल सकती, धीरे- धीरे चलूंगी।" "इधर से आइए देवी ! इधर से।" सीता ने शय्या से उठकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके प्रातः नमन करते हुए कहा, तपस्वी जनों को प्रणाम ! गुरुकुल के देवताओं को प्रणाम ! आर्यपुत्र के चरणकमल में प्रणाम ? में सब गुरुजनों को प्रणाम करती हूं !" फिर दुर्मुख से बोली, "चल, भद्र ! रथ किधर है ?" 'इधर से देवी ! इधर से।" - .. उन्नीस रथ चलते-चलते मध्याह्न हो गया। गंगा के किनारे वाल्मीकि आश्रम के पास पहुंचकर सीता ने लक्ष्मण से कहा, "लक्ष्मण ! आज मैं कितनी प्रसन्न हूं !" "हां, भाभी !" "पर तुम तो बड़े उदास हो।"