"आर्य भरत भगवती मांडवी को साथ लेकर कहीं दूर चले गए हैं। उनके साथ सहस्रों पुरवासियों और राजकर्मचारियों ने भी अयोध्या छोड़ दी है। राजमहल में केवल बहुएं और उनकी कुछ चेरियां रह गई हैं। आज्ञा हो, तो, उन्हें भी सरयू में डुबो दिया जाए।"
"हाय, भाई! सबने मुझे त्याग दिया। अब तुम भी ऐसी कठोर बात कहते हो?" यह कहकर राम बिलखकर रो उठे।
लक्ष्मण ने अधीरता से कहा, "अरे, महाराज! यह आप बालक की भांति रोने लगे।"
"हाय, सीता! तुमने मेरे लिए राजभोग तजकर वन में दुःख सहा। फूलों पर डरकर पैर रखने वाली तुम भाग्यहीन मेरे साथ नंगे पैर वन-वन फिरीं। राक्षस रावण ने तुम्हें हर लिया, तो भी तुमने इस निर्दय राम को न भुलाया। आज बिना अपराध मैंने तुम्हें त्याग दिया। अब मैं कैसे तुम्हारे बिना रहूंगा? अरे, तुम तो कभी एक कड़वी बात भी नहीं बोली थीं। याद करने पर भी मुझे तुम्हारा कोई अपराध याद नहीं आता। अरी, जनकदुलारी! अरी, अयोध्या की आंखों की पुतली! उस निर्जन वन में मेरे रहते तुम असहाय गर्भ का बोझ लिए पड़ी हो! मुझपर धिक्कार! धिक्कार!!"
राम मूर्च्छित हो गए। लक्ष्मण ने उन्हें संभाला और सेवकों को आवाज दी, "अरे, दौड़ो! महाराज मूर्च्छित हो गए। हाय, दास-दासी भी सब महाराज की सेवा से जी चुराने लगे। सब भगवती सीता के लिए सिर धुन रहे हैं। उठिए, महाराज! हाय, मैं अकेला क्या करूं? अरे, कोई आओ। कोई नहीं आता। महाराज को सबने त्याग दिया। महाराज! सावधान होइए। हाय रे, राजधर्म!"
इक्कीस
वाल्मीकि आश्रम में सीता को यथासमय प्रसव हुआ। लव और कुश दो पुत्रों ने जन्म लिया, जिन्हें पाकर सीता का दुःख कुछ कम हुआ। भाग्य प्रबल मानकर वह भी आश्रमवासियों की भांति जीवन व्यतीत करने लगी, परन्तु राम की स्मृति तो उसकी आत्मा में बसी हुई थी, इसलिए एकान्त होने पर वह राघव की याद करके उदास हो जाती थीं। एक दिन सीता अपनी कुटी में अकेली बैठी हुई दूरी से वटुकों की वेदपाठ-ध्वनि सुन रही थी। आश्रम की संगिनी वासन्तीदेवी ने आकर कहा, "क्या हो रहा है?"
सीता ने उतर दिया, 'अहा, मेघ-निर्घोष के समान यह वेदध्वनि कैसी
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