पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/८१

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( मधुर लग रही है ! सुनने से कान पवित्र होते हैं । इस अमृत ध्वनि के सुनते ही मन के सब पाप-ताप दूर हो जाते हैं।" "देवी ! यह वनश्री शान्त-अभिराम और पुग्यमय है। राजभोग इसके सम्मुख नगण्य है।" "सच है बहन ! मुझे बारम्बार वनस्थली की वे अवर्णनीय शोभाशाली दिन याद आते हैं, जब मैं आर्यपुत्र के साथ वहां रहती थी।" 'अयोध्या के राजमहालय के ऐश्वयं-भोग याद नहीं आते देवी !" "न, बहन ! उन भोगों ने हमें ही भोगा, हमने उन्हें नहीं भोगा।" "भोग तो ऐसे ही हैं। इनी से मनस्वी त्याग ही को श्रेष्ठ कहते हैं।' "अथवा तप को। जहां वासना का दमन किया जाता है, इच्छाओं का संयम किया जाता है।" "इनीसे त्याग और तप के लिए वन ही उपयुक्त है। जहां निसर्ग का शुद्ध रूप जीवन को त्याग और तप की प्रेरणा देते हैं।" "अहा, स्वप्न-सुख के समान हमारे वे त्याग और तप के लम्बे दिन पंचवटी में बीत गए। जहां मृगी गर्व से मस्तक उठाकर मृग से खेलती थी, मृग के सींग से वह अपनी आँख खुजाती थी। गोदावरी के कूल पर, जहां महावटों की डालियों की जड़ें भगवती वसुन्धरा को चूमती थीं। जिसकी सवा छाया में हमारी पर्गकुटी मनोरम प्रस्रवण पर्वत-शृंखला के सम्मुख कैनी मनोरम लगती थी !" "भगवती सीते ! यहां की वो भी अलौकिक है । वह सामने बहती गंगा का कल कल स्वर, स्वच्छ चांदनी में दूर तक फैली हुई रजत रेती कितनी शान्त, कितनी महान और दिव्यदर्शना है !" "परन्तु यहां आर्यपुत्र का सुखद सहवास कहां? उन के नवमेघ के समान मुव के दर्शन कहाँ ? हीरक-मणि-सी शुभदृष्टि कहाँ ? कुसुमजाल को लांछित करने वाली अंकशय्या कहां ? अरी, सखी ! इन नेत्रों को उस प्रियदर्शन मुख के बिना यह अलौकिक वनश्री सूनी ही-सी लग रही है।" "देवी यह तुम्हारे प्यार का प्रभाव है।" इस क्षुद्र हृदय में क्षोभ का अनन्त सागर लहरा रहा है ; परन्तु विदेह की कन्या और रघुकुल वधू, इस हतभागा सीता के संताप को कैते बहा ले जाए, जितने विधि-विडम्बना से अपनी सब अभिलाषाओं को सू वी तपस्या से जकड़कर बांध रखा है ! तनिक भी असावधान होने से वह बांध टूट जाता है । सोया हुआ प्रेम जाग उठता है और रुंधे हुए आंसुओं की वेगवती धारा उच्छ्वास के साथ फूट निकलती है।” "देवी ! हम तपस्विनी हैं। भला, इन प्रेम-आसक्ति की बातों से "अहा, देखो! !